यह एडिटोरियल 10/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The climate crisis is not gender neutral” लेख पर आधारित है। इसमें जलवायु संकट के असमान प्रभाव पर, विशेष रूप से महिलाओं की बढ़ती भेद्यता पर प्रकाश डालते हुए, विचार किया गया है। लेख में प्रभावी जलवायु कार्रवाई के लिये संपूर्ण आबादी की पूर्ण भागीदारी की आवश्यकता बताई गई है जहाँ बलपूर्वक कहा गया है कि महिलाओं के सशक्तीकरण से अधिक प्रभावशील जलवायु समाधान प्राप्त होंगे। प्रिलिम्स के लिये: जलवायु परिवर्तन, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP), भारत का सर्वोच्च न्यायालय, जलवायु सम्मेलन (COP 28), लिंग आधारित हिंसा, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) 4 और 5, ऊर्जा। मेन्स के लिये: महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, महिलाओं पर प्रभाव डालने वाले जलवायु परिवर्तन संबंधी मुद्दों को हल करना। जलवायु संकट उत्पन्न हो चुका है और इसका प्रभाव सभी पर एकसमान रूप से नहीं पड़ता है। महिलाओं एवं बालिकाओं को विशेष रूप से गरीबी की स्थितियों में और मौजूदा भूमिकाओं, उत्तरदायित्वों एवं सांस्कृतिक मानदंडों के कारण विषम रूप से उच्च स्वास्थ्य जोखिमों का अनुभव होता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, किसी आपदा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं और बच्चों की मृत्यु की संभावना 14 गुना अधिक होती है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल के एक निर्णय में कहा है कि लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार है, जबकि स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को पहले से ही जीवन के अधिकार के दायरे में एक मूल अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है। विभिन्न आयामों में महिलाओं के साथ जलवायु परिवर्तन का संबंध: स्वास्थ्य: प्राथमिक देखभालकर्ता के रूप में उनकी भूमिका और उनकी जैविक संवेदनशीलता के कारण महिलाएँ प्रायः जलवायु संबंधी स्वास्थ्य जोखिमों का अधिक सामना करती हैं। वे लू (ग्रीष्म लहर), चरम मौसमी घटनाओं और मलेरिया एवं डेंगू बुखार जैसी वेक्टर-जनित बीमारियों के संक्रमण से स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का अधिक सामना कर सकती हैं। गर्भवती महिलाएँ और नव माताएँ विशेष रूप से भेद्य या असुरक्षित हैं, जिन्हें कुपोषण, प्रसव अवधि की जटिलताओं और जलवायु आपदाओं के बाद के परिदृश्य में मातृ स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुँच के जोखिम का सामना करना पड़ता है। आजीविका और आय: महिलाएँ, विशेष रूप से विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में, अपनी आजीविका के लिये कृषि एवं वानिकी जैसे जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भर हैं। जलवायु परिवर्तन से प्रेरित कारक, जैसे अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, सूखा, बाढ़ एवं मृदा क्षरण कृषि उत्पादकता को बाधित कर सकते हैं, जिससे महिला किसानों के लिये आय की कमी और खाद्य असुरक्षा की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इसके अतिरिक्त, महिलाओं को प्रायः ऐसी अनौपचारिक और निम्न वेतन वाली नौकरियों में नियोजित किया जाता है जो कम रोज़गार सुरक्षा प्रदान करती हैं और जलवायु-संबंधी व्यवधानों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती हैं। शिक्षा और साक्षरता: बाढ़ और तूफ़ान जैसी जलवायु संबंधी आपदाएँ आधारभूत संरचना को क्षति पहुँचाने और स्कूलों के बंद होने के रूप में बच्चों की शिक्षा को बाधित कर सकती हैं। कई समाजों में ऐसे संकटों के दौरान सुरक्षा चिंताओं या बढ़ती देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारियों के कारण बालिकाओं को स्कूल से निकाले जाने की संभावना अधिक होती है। जल और स्वच्छता व्यवस्था: महिलाएँ और बालिकाएँ, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, प्रायः घरों में जल संग्रहण एवं प्रबंधन के लिये ज़िम्मेदार होती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण जल की कमी एवं उनके प्रदूषण से जल लाने में लगने वाला समय एवं श्रम बढ़ सकता है, जिससे महिलाओं के लिये शिक्षा, आय सृजन और सामुदायिक भागीदारी के अवसर सीमित हो सकते हैं। इसके अलावा, स्वच्छ जल और स्वच्छता सुविधाओं तक अपर्याप्त पहुँच महिलाओं के स्वास्थ्य एवं साफ-सफाई पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, जिससे जलजनित बीमारियों और मातृ मृत्यु दर में वृद्धि होती है। जलवायु परिवर्तन का महिलाओं पर प्रभाव: लिंग आधारित हिंसा से प्रत्यक्ष संबंध: ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (CEEW) की वर्ष 2021 की एक रिपोर्ट से उजागर हुआ है कि 75% भारतीय ज़िले बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी जल संबंधी आपदाओं की चपेट में हैं। NFHS 5 के आँकड़े से संकेत मिलता है कि इन ज़िलों में आधे से अधिक महिलाएँ और बच्चे इन जोखिमों के संपर्क में हैं। हाल के अध्ययनों से इन प्राकृतिक आपदाओं और महिलाओं के विरुद्ध लिंग आधारित हिंसा के बीच प्रत्यक्ष संबंध की लगातार पुष्टि होती है। संघर्ष-प्रभावित क्षेत्रों में, जहाँ चरम मौसमी घटनाओं का खतरा भी अधिक होता है, लिंग-आधारित हिंसा व्यापक रूप से मौजूद होती है। उदाहरण के लिये, ‘जिनेवा सेंटर फॉर सिक्यूरिटी सेक्टर गवर्नेंस’ के एक सबमिशन में दर्ज किया गया है कि कोलंबिया, माली और यमन जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय क्षरण और संघर्ष के संयुक्त प्रभावों के कारण महिलाएँ एवं बालिकाएँ विशेष रूप से लिंग आधारित हिंसा के प्रति असुरक्षित हैं। दीर्घकालिक ग्रीष्म लहरों का प्रभाव: पिछला दशक मानव इतिहास में अब तक का सबसे गर्म दशक रहा है और भविष्य में भारत जैसे देशों को अभूतपूर्व ग्रीष्म लहरों (Heat Waves) का सामना करना पड़ सकता है। दीर्घावधिक ग्रीष्म लहरें गर्भवती महिलाओं के लिये विशेष रूप से खतरनाक होती हैं जो शिशुओं के समय-पूर्व जन्म और एक्लेम्पसिया (eclampsia) का खतरा बढ़ा देती हैं। इसी तरह, हवा में मौजूद प्रदूषकों (घर में और बाहर) के संपर्क में आने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है और उनमें श्वसन एवं हृदय संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इससे अजन्मे बच्चे का शारीरिक एवं संज्ञानात्मक विकास भी प्रभावित होता है। भारत में समूह अध्ययनों से सामने आए आँकड़ों से पता चलता है कि PM2.5 में प्रत्येक 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि से फेफड़ों के कैंसर का खतरा 9% बढ़ जाता है, उसी दिन हृदय संबंधी मौतों का खतरा 3% और स्ट्रोक का खतरा 8% बढ़ जाता है। मनोभ्रंश (dementia) के लिये, वार्षिक PM2.5 में 2 माइक्रोग्राम की वृद्धि से जोखिम 4% बढ़ जाता है। बाल विवाह की दरों में वृद्धि: विभिन्न देशों और भूभागों में विभिन्न समुदायों में आपदा की स्थिति से निपटने के एक साधन के रूप में बाल विवाह के मामलों में वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिये बांग्लादेश, इथियोपिया और केन्या में इसे धन या संपत्ति सुरक्षित करने के एक साधन के रूप में देखा गया है। ऐसे समुदायों में आमतौर पर संकट का सामना करने के