Current Affairs For India & Rajasthan | Notes for Govt Job Exams

National Institute/Organization

राजस्थान में बढ़ती विद्युत ऊर्जा खपत

चर्चा में क्यों? हाल ही में बढ़ते तापमान के कारण राजस्थान में विद्युत ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि हो रही है, जो राज्य के विद्युत क्षेत्र के लिये चिंता का विषय है। मुख्य बिंदु: बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये राजस्थान प्रत्येक वर्ष बढ़ी हुई कीमत पर दूसरे राज्यों से विद्युत खरीदता है। भारत में तापमान बढ़ने के साथ ऊर्जा विभाग द्वारा व्यवस्था करने में विफलता के कारण उपभोक्ताओं के लिये विद्युत की कमी हो सकती है, जिससे औद्योगिक उत्पादन पर काफी असर पड़ सकता है। अप्रैल 2023 में राज्य में 2,450 लाख यूनिट से अधिक विद्युत का उपयोग किया गया। अप्रैल 2024 में यह संख्या बढ़कर 2,700 लाख यूनिट से अधिक हो गई और मई 2024 के पहले सप्ताह में बढ़कर 2,900 लाख यूनिट हो गई। उम्मीदें वर्ष 2024 में विद्युत की खपत में 8-10% की वृद्धि का संकेत देती हैं। राज्य की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 24,000 मेगावाट से अधिक है, लगभग 58% कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों से आती है और लगभग 10-12% सौर संयंत्रों द्वारा उत्पन्न होती है।

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प्रवर्तन निदेशालय

भूमिका प्रवर्तन निदेशालय एक बहु अनुशासनात्मक संगठन है जो वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग का हिस्सा है। यह दो विशेष राजकोषीय कानूनों – विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (फेमा) और धन की रोकथाम अधिनियम, 2002 (पी.एम.एल.ए.) के प्रावधानों को लागू करने का कार्य करता है। सीधी भर्ती द्वारा कर्मियों की नियुक्ति के अलावा निदेशालय प्रतिनियुक्ति पर विभिन्न जाँच एजेंसियों, सीमा शुल्क और केंद्रीय उत्पाद शुल्क, आयकर, पुलिस आदि विभागों से भी अधिकारियों को नियुक्त करता है। संगठनात्मक इतिहास इस निदेशालय की उत्पत्ति 1 मई, 1956 को हुई, जब विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 (फेरा ’47) के तहत विनिमय नियंत्रण कानून के उल्लंघन से निपटने के लिये आर्थिक मामलों के विभाग में एक ‘प्रवर्तन इकाई’ का गठन किया गया। इस इकाई का नेतृत्व एक कानूनी सेवा अधिकारी द्वारा किया गया था। प्रवर्तन निदेशालय अधिकारी के रूप में आर.बी.आई. से प्रतिनियुक्ति पर आए एक अधिकारी के अलावा विशेष पुलिस प्रतिष्ठान के 03 निरीक्षक (दिल्ली मुख्यालय) शामिल किये गए। वस्तुतः वर्तमान में इसमें भारतीय राजस्व सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भी शामिल किये गए हैं। प्रारंभ में बंबई और कलकत्ता में 02 शाखाएँ खोली गई। वर्ष 1957 में इस इकाई का नाम बदलकर ‘प्रवर्तन निदेशालय’ कर दिया गया और मद्रास में एक और शाखा खोली गई। निदेशालय के प्रशासनिक नियंत्रण को वर्ष 1960 में आर्थिक मामलों के विभाग से राजस्व विभाग में स्थानांतरित कर दिया गया। समय बीतने के साथ, FERA’1947 कानून को FERA’1973 कानून द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। 04 साल की अवधि (1973-1977) के लिये निदेशालय कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग के प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र में रहा। पुनः आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत के साथ, FERA’1973 (जो एक नियामक कानून था) निरस्त कर दिया गया और इसके स्थान पर 1 जून, 2000 से एक नया कानून-विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (FEMA) लागू किया गया। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय एंटी मनी लॉन्ड्रिंग व्यवस्था (International Anti Money Laundering Arrangement) के साथ तालमेल बनाते हुए PREVENTION OF MONEY LAUNDERING ACT 2002 (PMLA) को अधिनियमित (2005/07/01 से प्रभावी) कर प्रवर्तन निदेशालय को सौंपा गया। अधिकार एवं शक्तियाँ एक बहुआयामी संगठन की भूमिका में निदेशालय दो कानूनों को लागू करता है, जो निम्नलिखित हैं: 1. विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FOREIGN EXCHANGE MANAGEMENT ACT-FEMA)– यह एक नागरिक कानून है, जो निदेशालय को अर्ध न्यायिक शक्तियाँ देता है। यह निदेशालय को विनिमय नियंत्रण कानून के संदिग्ध उल्लंघनों की जाँच करने के साथ दोषी पर जुर्माना लगाने की भी शक्ति देता है। 2. धन शोधन निवारण अधिनियम (PREVENTION OF MONEY LAUNDERING ACT-PMLA)– यह एक आपराधिक कानून है, जो निदेशालय के अधिकारियों को अनंतिम रूप से जाँच पड़ताल करने, पूछताछ करने और जुर्माना लगाने का अधिकार देता है। यह कानून अधिकारियों को कालाधन के कारोबार में लिप्त व्यक्तियों को गिरफ्तार करने और मुकदमा चलाने के अलावा अपराधिक कृत्यों से प्राप्त संपत्ति को संलग्न/जब्त करने का अधिकार भी देता है। संगठनात्मक ढाँचा प्रवर्तन निदेशक नई दिल्ली में अपने मुख्यालय के साथ प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख होते हैं। प्रवर्तन निदेशालय के विशेष निदेशकों के नेतृत्व में मुंबई, चेन्नई, चंडीगढ़, कोलकाता और दिल्ली में पाँच क्षेत्रीय कार्यालय (Regional office) हैं। निदेशालय के आंचलिक कार्यालय (Zonal Office) अहमदाबाद, बैंगलोर, चंडीगढ़, चेन्नई, कोच्चि, दिल्ली, पणजी, गुवाहाटी, हैदराबाद, जयपुर, जालंधर, कोलकाता, लखनऊ, मुंबई, पटना और श्रीनगर में हैं। इनकी अध्यक्षता एक संयुक्त निदेशक करता है। निदेशालय के भुवनेश्वर, कोझीकोड, इंदौर, मदुरै, नागपुर, इलाहाबाद, रायपुर, देहरादून, रांची, सूरत, शिमला, विशाखापत्तनम और जम्मू में उप-जोनल कार्यालय हैं, जिनकी अध्यक्षता एक उप-निदेशक करते हैं। निदेशालय के कार्य निदेशालय के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं: विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (फेमा) के प्रावधानों के उल्लंघन की जाँच करना, जो 1.6.2000 से प्रभाव में आया। • निदेशालय नामित अधिकारियों द्वारा फेमा के उल्लंघन के दोषियों की जाँच की जाती है और इसमें शामिल राशि का तीन गुना तक जुर्माना लगाया जा सकता है। मनी लॉन्ड्रिंग निरोधक अधिनियम, 2002 (PMLA) के प्रावधानों के तहत (जो 1.7.2005 से प्रभावी हुआ) धन शोधन के अपराधों की जाँच करना, संपत्ति की कुर्की और जब्ती की कार्रवाई करना और मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध में शामिल व्यक्तियों के खिलाफ मुकदमा चलाना (28 कानूनों के तहत 156 अपराध हैं, जो पी.एम.एल.ए. के तहत अनुसूचित अपराध हैं।) निरस्त विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 (FERA) का (31.5.2002 तक के) उल्लंघन होने पर जारी किये गए शो कॉज नोटिस (कारण बताओ नोटिस) का न्याय निर्णयन करना, जिसके परिणामस्वरूप जुर्माना लगाया जा सकता है। भगोड़े आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 के तहत भारत से भागे लोगों के मामले देखना। • इस अधिनियम का उद्देश्य ऐसे भगोड़े आर्थिक अपराधियों को दंडित करना है जो भारतीय न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहकर कानून की प्रक्रिया से बचने के उपाय खोजते हैं। FEMA के उल्लंघन के संबंध में विदेशी मुद्रा और संरक्षण गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम, 1974 (COFEPOSA) के तहत निवारक निरोध के प्रायोजक मामले देखना। पी.एम.एल.ए. के प्रावधानों के तहत मनी लॉन्ड्रिंग (धन शोधन) और परिसंपत्तियों की बहाली से संबंधित मामलों में अन्य देशों को सहयोग प्रदान करना और ऐसे मामलों में सहयोग लेना। निदेशालय द्वारा प्रयुक्त अधिनियम, नियम और कानून प्रवर्तन निदेशालय द्वारा कुछ नियम,कानून और अधिनियमों का प्रयोग किया जाता है, जिनका उल्लंघन होने पर यह निदेशालय सक्रिय हो जाता है – भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (फेमा) विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) नियम धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) धन शोधन निरोधक अधिनियम (पी.एम.एल.ए.) नियम पी.एम.एल.ए. के तहत सूचीबद्ध अपराध विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 (फेरा) विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1947 (संशोधित फेरा) विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 (FERA) विशेष अदालतें पी.एम.एल.ए. की धारा 4 के तहत दंडनीय अपराध की सुनवाई के लिये, केंद्र सरकार (उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से), एक या अधिक सत्र न्यायालय को विशेष न्यायालय के रूप में नामित करती है। न्यायालय को “पी.एम.एल.ए. कोर्ट” भी कहा जाता है। पी.एम.एल.ए. न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश के खिलाफ कोई भी अपील सीधे उस क्षेत्राधिकार के लिये उच्च न्यायालय में दायर की जा सकती है। निदेशालय से संबद्ध कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थान प्रवर्तन निदेशालय द्वारा अपने दायित्वों के निर्वहन में कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों का भी सहयोग लिया जाता है और समय-समय पर उन्हें सहयोग भी दिया जाता है तथा यह निदेशालय निम्नलिखित संस्थानों से निरंतर संपर्क में

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भारतीय रिज़र्व बैंक

स्थापना भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India-RBI) की स्थापना भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 के प्रावधानों के अनुसार 1 अप्रैल, 1935 को हुई थी। शुरुआत में रिज़र्व बैंक का केंद्रीय कार्यालय कोलकाता में स्थापित किया गया था जिसे वर्ष 1937 में स्थायी रूप से मुंबई में स्थानांतरित कर दिया गया। केंद्रीय कार्यालय वह कार्यालय है जहाँ RBI का गवर्नर बैठता है और जहाँ नीतियाँ निर्धारित की जाती हैं। यद्यपि प्रारंभ में यह निजी स्वमित्व वाला था, वर्ष 1949 में RBI के राष्ट्रीयकरण के बाद से इस पर भारत सरकार का पूर्ण स्वामित्व है। प्रस्तावना भारतीय रिज़र्व बैंक की प्रस्तावना में बैंक के मूल कार्य इस प्रकार वर्णित किये गए हैं: “भारत में मौद्रिक स्थिरता प्राप्त करने की दृष्टि से बैंक नोटों के निर्गम को विनियमित करना तथा प्रारक्षित निधि को बनाए रखना और सामान्य रूप से देश के हित में मुद्रा एवं ऋण प्रणाली को संचालित करना। अत्यधिक जटिल अर्थव्यवस्था की चुनौती से निपटने के लिये आधुनिक मौद्रिक नीति फ्रेमवर्क रखना। वृद्धि के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता बनाए रखना। केंद्रीय बोर्ड रिज़र्व बैंक का कामकाज केंद्रीय निदेशक बोर्ड द्वारा शासित होता है। भारत सरकार के भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम के अनुसार इस बोर्ड की नियुक्ति/नामन चार वर्ष के लिये होती है। गठन सरकारी निदेशक शक्तिकांत दास RBI के वर्तमान गवर्नर हैं। पूर्ण:कालिक : गवर्नर और अधिकतम चार उप गवर्नर गैर:सरकारी निदेशक सरकार द्वारा नामित : विभिन्न क्षेत्रों से दस निदेशक और दो सरकारी अधिकारी अन्य : चार निदेशक – चार स्थानीय बोर्डों से प्रत्येक से एक प्रमुख कार्य 1. मौद्रिक प्रधिकारी (Monetary Authority) मौद्रिक नीति तैयार कर उसका कार्यान्वयन और निगरानी करता है। उद्देश्य: विकास के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मूल्य स्थिरता बनाए रखना। रिज़र्व बैंक यह कार्य वित्तीय पर्यवेक्षण बोर्ड (Board for Financial Supervision-BFS) के दिशा-निर्देशों के अनुसार करता है। इस बोर्ड की स्थापना भारतीय रिज़र्व बैंक के केंद्रीय निदेशक बोर्ड की एक समिति के रूप में नवंबर 1994 में की गई थी। मौद्रिक नीति समिति क्या है? केंद्र सरकार द्वारा धारा 45ZB के तहत गठित मौद्रिक नीति समिति (Monetary Policy Committee-MPC) मुद्रास्फीति लक्ष्य को हासिल करने के लिये आवश्यक नीतिगत ब्याज दर निर्धारित करती है। पहले यह काम रिज़र्व बैंक के गवर्नर द्वारा किया जाता था। रिज़र्व बैंक का मौद्रिक नीति विभाग मौद्रिक नीति निर्माण में इस समिति की सहायता करता है तथा अर्थव्यवस्था के सभी हितधारकों के विचारों और रिज़र्व बैंक के विश्लेषणात्मक कार्य से नीतिगत रेपो दर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में योगदान करता है। 2. वित्तीय प्रणाली का विनियामक और पर्यवेक्षक (Regulator and Supervisor of the Financial System) बैंकिंग परिचालन के लिये विस्तृत मानदंड निर्धारित करता है जिसके अंतर्गत देश की बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली काम करती है। उद्देश्यः प्रणाली में लोगों का विश्वास बनाए रखना, जमाकर्त्ताओं के हितों की रक्षा करना और आम जनता को किफायती बैंकिंग सेवाएँ उपलब्ध कराना। 3. विदेशी मुद्रा प्रबंधक (Manager of Foreign Exchange) विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 का प्रबंध करता है। उद्देश्यः विदेश व्यापार और भुगतान को सुविधाजनक बनाना एवं भारत में विदेशी मुद्रा बाज़ार का क्रमिक विकास करना तथा उसे बनाए रखना। 4. मुद्रा जारीकर्त्ता (Issuer of Currency) यह करेंसी जारी करता है और उसका विनिमय करता है अथवा परिचालन के योग्य नहीं रहने पर करेंसी और सिक्कों को नष्ट करता है। उद्देश्य : आम जनता को अच्छी गुणवत्ता वाले करेंसी नोटों और सिक्कों की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध कराना। विकासात्मक भूमिका राष्ट्रीय उद्देश्यों की सहायता के लिये व्यापक स्तर पर प्रोत्साहक कार्य करना। संबंधित कार्य सरकार का बैंकर : केंद्र और राज्य सरकारों के लिये यह व्यापारी बैंक की भूमिका अदा करता है; उनके बैंकर का कार्य भी करता है। बैंकों के लिये बैंकर : सभी अनुसूचित बैंकों के बैंक खाते रखता है। RBI द्वारा प्रशासित अधिनियम:  भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934  सार्वजनिक ऋण अधिनियम, 1944/सरकारी प्रतिभूति अधिनियम, 2006  सरकारी प्रतिभूति विनियम, 2007  बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949  विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999  वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण और प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम, 2002 (अध्याय II)  क्रेडिट सूचना कंपनी (विनियमन) अधिनियम, 2005  भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007  भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007 2019 तक संशोधित के रूप में  भुगतान और निपटान प्रणाली विनियम, 2008 जैसा कि 2022 तक संशोधित किया गया है।  फैक्टरिंग विनियमन अधिनियम, 2011  RBI द्वारा की गई पहलें:  हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के गवर्नर द्वारा बंगलूरू में रिज़र्व बैंक इनोवेशन हब (RBIH) का उद्घाटन किया गया।  इसे कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 8 के तहत 100 करोड़ रुपए का प्रारंभिक पूंजी योगदान के साथ एक कंपनी के रूप में स्थापित किया गया है।  यह RBI की पूर्ण स्वामित्त्व वाली सहायक कंपनी है।  भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने तत्काल प्रभाव से रुपए (INR) में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की सुविधा के लिये एक तंत्र भी स्थापित किया है।  RBI द्वारा प्रस्तावित संशोधित फ्रेमवर्क के अनुसार, विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA), 1999 के तहत कवर किये गए क्रॉस-बॉर्डर निर्यात और आयात को भारतीय रुपए में डिनॉमिनेट और इनवॉइस किया जा सकता है। हालाँकि RBI ने निर्धारित किया है कि दोनों व्यापार भागीदार देशों की मुद्राओं के बीच विनिमय दर बाज़ार के अनुसार निर्धारित की जाएगी  वार्षिक रिपोर्ट वार्षिक रिपोर्ट रिज़र्व बैंक की सांविधिक रिपोर्ट (Statutory Report) है और इसे हर वर्ष अगस्त में जारी किया जाता है। यह रिज़र्व बैंक के केंद्रीय निदेशक मंडल की भारत सरकार को प्रस्तुत की जाने वाली रिपोर्ट है और इसमें शामिल होते हैं; भारतीय अर्थव्यवस्था का आकलन और संभावनाएँ; अर्थव्यवस्था की स्थिति की समीक्षा; वर्ष के दौरान रिज़र्व बैंक का कार्य; आगामी वर्ष के लिये रिज़र्व बैंक का विज़न और एजेंडा; तथा रिज़र्व बैंक के वार्षिक खाते (जुलाई-जून) भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर रिपोर्ट यह भी केंद्रीय बैंक द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला सांविधिक प्रकाशन (Statutory Publication) है। वार्षिक रूप से प्रस्तुत यह दस्तावेज़ पिछले वर्ष के लिये वित्तीय क्षेत्र की नीतियों और कार्य निष्पादन की समीक्षा है। अप्रैल से मार्च तक की अवधि को कवर करने वाले इस प्रकाशन को सामान्यतः नवंबर/दिसंबर में जारी किया जाता है। दिसंबर 2014 से यह प्रकाशन वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के एक भाग के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता RBI अधिनियम की धारा 7(1) के तहत केंद्र सरकार रिज़र्व बैंक के गवर्नर से परामर्श कर बैंक को

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राष्ट्रीय हरित अधिकरण

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (National Green Tribunal – NGT) की स्थापना 18 अक्तूबर, 2010 को राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम (National Green Tribunal Act), 2010 के तहत की गई थी। NGT की स्थापना के साथ भारत एक विशेष पर्यावरण न्यायाधिकरण (Specialised Environmental Tribunal) स्थापित करने वाला दुनिया का तीसरा (और पहला विकासशील) देश बन गया। इससे पहले केवल ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में ही ऐसे किसी निकाय की स्थापना की गई थी। NGT की स्थापना का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण संबंधी मुद्दों का तेज़ी से निपटारा करना है, जिससे देश की अदालतों में लगे मुकदमों के बोझ को कुछ कम किया जा सके। NGT का मुख्यालय दिल्ली में है, जबकि अन्य चार क्षेत्रीय कार्यालय भोपाल, पुणे, कोलकाता एवं चेन्नई में स्थित हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम के अनुसार, NGT के लिये यह अनिवार्य है कि उसके पास आने वाले पर्यावरण संबंधी मुद्दों का निपटारा 6 महीनों के भीतर हो जाए। NGT की संरचना NGT में अध्यक्ष, न्यायिक सदस्य और विशेषज्ञ सदस्य शामिल होते है। वे तीन वर्ष की अवधि अथवा पैंसठ वर्ष की आयु (जो भी पहले हो) तक पद पर रहेंगे और पुनर्नियुक्ति के पात्र नहीं होंगे। अध्यक्ष की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। न्यायिक और विशेषज्ञ सदस्यों की नियुक्ति के लिये केंद्र सरकार द्वारा एक चयन समिति बनाई जाती है। यह आवश्यक है कि अधिकरण में कम-से-कम 10 और अधिकतम 20 पूर्णकालिक न्यायिक सदस्य एवं विशेषज्ञ सदस्य हों। शक्तियाँ और अधिकार क्षेत्र अधिकरण का न्याय क्षेत्र बेहद विस्तृत है और यह उन सभी मामलों की सुनवाई कर सकता है जिनमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण शामिल हो। इसमें पर्यावरण से संबंधित कानूनी अधिकारों को लागू करना भी शामिल है। अक्तूबर 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ (NGT) को एक ‘विशिष्ट’ मंच के रूप में घोषित करते हुए कहा कि वह देश भर में पर्यावरणीय मुद्दों को उठाने हेतु ‘स्वत: संज्ञान’ (Suo Motu) लेने की शक्तियों से संपन्न है।  सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ की भूमिका केवल न्यायनिर्णयन तक सीमित नहीं है, ट्रिब्यूनल को कई अन्य महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ भी निभानी होती हैं, जो प्रकृति में निवारक, सुधारात्मक या उपचारात्मक हो सकती हैं। एक वैधानिक निकाय होने के कारण NGT के पास अपीलीय क्षेत्राधिकार है और जिसके तहत वह सुनवाई कर सकता है। नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure 1908) में उल्लिखित न्यायिक प्रक्रिया का पालन करने के लिये NGT बाध्य नहीं है। किसी भी आदेश/निर्णय/अधिनिर्णय को देते समय यह यह आवश्यक है कि NGT उस पर सतत् विकास (Sustainable Development), निवारक (Precautionary) और प्रदूषक भुगतान (Polluter Pays), आदि सिद्धांत लागू करे। अधिकरण अपने आदेशानुसार… पर्यावरण प्रदूषण या किसी अन्य पर्यावरणीय क्षति के पीड़ितों को क्षतिपूर्ति प्रदान कर सकता है। क्षतिग्रस्त संपत्तियों की बहाली अथवा उसका पुनर्निर्माण करवा सकता है। NGT द्वारा दिए गए को आदेश/निर्णय/अधिनिर्णय का निष्पादन न्यायालय के आदेश के रूप में करना होता है। NGT अधिनियम में नियमों का पालन न करने पर दंड का प्रावधान भी किया गया है : एक निश्चित समय के लिये कारावास जिसे अधिकतम 3 वर्षों के लिये बढ़ाया जा सकता है। निश्चित आर्थिक दंड जिसे 10 करोड़ रुपए तक बढ़ाया जा सकता है। कारावास और आर्थिक दंड दोनों। NGT द्वारा दिये गए आदेश/निर्णय/अधिनिर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में 90 दिनों के भीतर अपील की जा सकती है। NGT पर्यावरण से संबंधित 7 कानूनों के तहत नागरिक मामलों की सुनवाई कर सकता है: 1. जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 2. जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) उपकर अधिनियम, 1977 3. वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 4. वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 5. पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 6. पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 7. जैव-विविधता अधिनियम, 2002 उपरोक्त कानूनों के तहत सरकार द्वारा लिये गए किसी भी निर्णय को NGT के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। NGT का महत्त्व विगत वर्षों में NGT ने पर्यावरण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और जंगलों में वनों की कटाई से लेकर अपशिष्ट प्रबंधन आदि के लिये सख्त आदेश पारित किये हैं। NGT ने पर्यावरण के क्षेत्र में न्याय के लिये एक वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र (Alternative Dispute Resolution Mechanism) स्थापित करके नई दिशा प्रदान की है। इससे उच्च न्यायालयों में पर्यावरण संबंधी मामलों का भार कम हुआ है। पर्यावरण संबंधी मुद्दों को सुलझाने के लिये NGT एक अनौपचारिक, मितव्ययी एवं तेज़ी से काम करने वाला तंत्र है। यह पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधियों को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चूँकि अधिकरण का कोई भी सदस्य पुनः नियुक्ति के योग्य नहीं होता है और इसीलिये वह बिना किसी भय के स्वतंत्रता-पूर्वक निर्णय सुना सकता है। चुनौतियाँ दो महत्त्वपूर्ण अधिनियमों [वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 (Wildlife Protection Act, 1972) तथा अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी अधिनियम, 2006 (Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers Act, 2006)] को NGT के अधिकार-क्षेत्र से बाहर रखा गया है, लेकिन इससे कई बार NGT के काम-काज प्रभावित होता है, क्योंकि पर्यावरण से जुड़े कई मुद्दे इन अधिनियमों के अधीन आते हैं। NGT के कई निर्णयों को उच्च न्यायालय में धारा 226 के तहत यह कहकर चुनौती दी जाती रही है कि उच्च न्यायालय एक संवैधानिक संस्था है, जबकि अधिकरण एक वैधानिक संस्था है। यह इस अधिनियम की सबसे बड़ी खामी है कि इसमें यह स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है कि किन मुकदमों को न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जा सकती है और किन को नहीं। आर्थिक वृद्धि और विकास पर प्रभाव डालने के कारण NGT के निर्णयों की समय-समय पर आलोचना होती रहती है। मुआवज़े के निर्धारण की कोई स्पष्ट विधि न होने के कारण भी अधिकरण आलोचना का शिकार हो जाता है। NGT के लिये यह अनिवार्य है कि उसके अधीन जो भी मुकदमा आए उसका निपटारा 6 महीनों के भीतर हो जाना चाहिये, परंतु मानव और वित्तीय संसाधनों के अभाव में NGT ऐसा नहीं कर पाता है। NGT का न्यायिक तंत्र भी सीमित संख्या में क्षेत्रीय पीठों (Regional Benches) के कारण बहुत अधिक प्रभावित होता है। NGT के महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक निर्णय वर्ष 2012 में एक दक्षिण कोरियाई स्टील निर्माता कंपनी POSCO ने इस्पात संयंत्र लगाने के लिये ओडिशा सरकार के साथ एक समझौता किया था, परंतु NGT

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लोकपाल और लोकायुक्त

क्या हैं लोकपाल और लोकायुक्त? लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम, 2013 ने संघ (केंद्र) के लिये लोकपाल और राज्यों के लिये लोकायुक्त संस्था की व्यवस्था की। ये संस्थाएँ बिना किसी संवैधानिक दर्जे वाले वैधानिक निकाय हैं। ये Ombudsman का कार्य करते हैं और कुछ निश्चित श्रेणी के सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करते हैं। हमें ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता क्यों है? खराब प्रशासन दीमक की तरह है जो धीरे-धीरे किसी राष्ट्र की नींव को खोखला करता है तथा प्रशासन को अपने कार्य पूर्ण करने में बाधा डालता है। भ्रष्टाचार इस समस्या की जड़ है। अधिकतर भ्रष्टाचार निरोधी संस्थाएँ पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हैं। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी CBI को ‘पिंजरे का तोता’ और ‘अपने मालिक की आवाज़’ बताया है। इनमें से कई एजेंसियाँ नाममात्र शक्तियों वाले केवल परामर्शी निकाय हैं और उनकी सलाह का शायद ही अनुसरण किया जाता है। इसके अलावा आंतरिक पारदर्शिता और जवाबदेही की भी समस्या है, क्योंकि इन एजेंसियों पर नज़र रखने के लिये अलग से कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है। इस संदर्भ में, एक स्वतंत्र लोकपाल संस्था भारतीय राजनीति के इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है, जिसने कभी समाप्त न होने वाले भ्रष्टाचार के खतरे का एक समाधान प्रस्तुत किया है। पृष्ठभूमि लोकपाल यानी Ombudsman संस्था की आधिकारिक शुरुआत वर्ष 1809 में स्वीडन में हुई। 20वीं शताब्दी में एक संस्था के रूप में ओम्बुड्समैन का विकास हुआ और यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तेज़ी से आगे बढ़ा। 1962 में न्यूजीलैंड और नॉर्वे ने यह प्रणाली अपनाई और ओम्बुड्समैन के विचार का प्रसार करने में यह बेहद अहम सिद्ध हुआ। वर्ष 1967 में 1वर्ष 961 के व्हाट्ट रिपोर्ट (Whyatt Report) की सिफारिश पर ग्रेट ब्रिटेन ने ओम्बुड्समैन संस्था को अपनाया तथा लोकतांत्रिक विश्व में इसे अपनाने वाला पहला बड़ा देश बन गया। गुयाना प्रथम विकासशील देश था, जिसने वर्ष 1966 में ओम्बुड्समैन का विचार अपनाया। इसके बाद मॉरीशस, सिंगापुर, मलेशिया के साथ भारत ने भी इसे अपनाया। भारत में संवैधानिक ओम्बुड्समैन का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1960 के दशक की शुरुआत में कानून मंत्री अशोक कुमार सेन ने संसद में प्रस्तुत किया था। लोकपाल एवं लोकायुक्त शब्द प्रख्यात विधिवेत्ता डॉ. एल.एम. सिंघवी ने पेश किया। वर्ष 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकारी अधिधिकारियों (संसद सदस्य भी शामिल) के विरुद्ध शिकायतों को देखने के लिये केंद्रीय तथा राज्य स्तर पर दो स्वतंत्र प्राधिकारियों की स्थापना की सिफारिश की थी। वर्ष 1968 में लोकसभा में लोकपाल विधेयक पारित हुआ, लेकिन लोकसभा के विघटन के साथ ही यह कालातीत हो गया और इसके बाद से यह लोकसभा में कई बार कालातीत हुआ। वर्ष 2011 तक विधेयक पारित करने के लिये आठ प्रयास किये गए, लेकिन सभी में असफलता ही मिली। वर्ष 2002 में एम. एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिये गठित आयोग ने लोकपाल व लोकायुक्तों की नियुक्ति की सिफारिश करते हुए प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखने की बात कही। वर्ष 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की कि लोकपाल का पद जल्द-से-जल्द स्थापित किया जाय। वर्ष 2011 में सरकार ने प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों का एक समूह भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने हेतु सुझाव देने तथा लोकपाल विधेयक के प्रस्ताव का परीक्षण करने के लिये गठित किया। अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत आंदोलन’ ने केंद्र में तत्कालीन UPA सरकार पर दवाब बनाया और इसके परिणामस्वरूप संसद के दोनों सदनों में लोकपाल व लोकायुक्त विधेयक, 2013 पारित हुआ।\ 1 जनवरी, 2014 को राष्ट्रपति ने इसे अपनी सम्मति दे दी और 16 जनवरी, 2014 को यह लागू हो गया। लोकपाल एवं लोकायुक्त (संशोधन) विधेयक, 2016 लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 को संशोधित करने के लिये यह विधेयक संसद ने जुलाई 2016 में पारित किया। इसके द्वारा यह निर्धारित किया गया कि विपक्ष के मान्यता प्राप्त नेता के अभाव में लोकसभा में सबसे बड़े एकल विरोधी दल का नेता चयन समिति का सदस्य होगा। इसके द्वारा वर्ष 2013 के अधिनियम की धारा 44 में भी संशोधन किया गया जिसमें प्रावधान है कि सरकारी सेवा में आने के 30 दिनों के भीतर लोकसेवक को अपनी सम्पत्तियों और दायित्वों का विवरण प्रस्तुत करना होगा। संशोधन विधेयक द्वारा 30 दिन की समय-सीमा समाप्त कर दी गई, अब लोकसेवक अपनी सम्पत्तियों और दायित्वों की घोषणा सरकार द्वारा निर्धारित रूप में एवं तरीके से करेंगे। यह ट्रस्टियों और बोर्ड के सदस्यों को भी अपनी तथा पति/पत्नी की परिसंपत्तियों की घोषणा करने के लिये दिये गए समय में भी बढ़ोतरी करता है, उन मामलों में जहां वे एक करोड़ रुपये से अधिक सरकारी या 10 लाख रुपये से अधिक विदेशी धन प्राप्त करते हों। लोकपाल की संरचना लोकपाल एक बहु-सदस्यीय निकाय है जिसका गठन एक चेयरपर्सन और अधिकतम 8 सदस्यों से हुआ है। लोकपाल संस्था का चेयरपर्सन या तो भारत का पूर्व मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश या असंदिग्ध सत्यनिष्ठा व प्रकांड योग्यता का प्रख्यात व्यक्ति होना चाहिये, जिसके पास भ्रष्टाचार निरोधी नीति, सार्वजनिक प्रशासन, सतर्कता, वित्त, बीमा और बैंकिंग, कानून व प्रबंधन में न्यूनतम 25 वर्षों का विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव हो। आठ अधिकतम सदस्यों में से आधे न्यायिक सदस्य तथा न्यूनतम 50 प्रतिशत सदस्य अनु. जाति/अनु. जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/अल्पसंख्यक और महिला श्रेणी से होने चाहिये। लोकपाल संस्था का न्यायिक सदस्य या तो सर्वोच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश या किसी उच्च न्यायालय का पूर्व मुख्य न्यायाधीश होना चाहिये। गैर-न्यायिक सदस्य असंदिग्ध सत्यनिष्ठा व प्रकांड योग्यता का प्रख्यात व्यक्ति, जिसके पास भ्रष्टाचार निरोधी नीति, सार्वजनिक प्रशासन, सतर्कता, वित्त, बीमा और बैंकिंग, कानून व प्रबंधन में न्यूनतम 25 वर्षों का विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव हो। लोकपाल संस्था के चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु तक है। सदस्यों की नियुक्ति चयन समिति की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। चयन समिति प्रधानमंत्री जो कि चेयरपर्सन होता है, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा नामित कोई न्यायाधीश और एक प्रख्यात न्यायविद से मिलकर गठित होती है। लोकपाल तथा सदस्यों के चुनाव के लिये चयन समिति कम-से-कम आठ व्यक्तियों का एक सर्च पैनल (खोजबीन समिति) गठित करती है। लोकपाल खोजबीन समिति

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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission)

“लोगों को उनके मानवाधिकारों से वंचित करना उनकी मानवता को चुनौती देना है।” – नेल्सन मंडेला क्या है राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग? राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission-NHRC) एक स्वतंत्र वैधानिक संस्था है, जिसकी स्थापना मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के प्रावधानों के तहत 12 अक्टूबर, 1993 को की गई थी। मानवाधिकार आयोग का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है और 12 अक्टूबर, 2018 को इसने अपनी स्थापना के 25 वर्ष पूरे किये। यह संविधान द्वारा दिये गए मानवाधिकारों जैसे – जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार और समानता का अधिकार आदि की रक्षा करता है और उनके प्रहरी के रूप में कार्य करता है। क्या होते हैं मानवाधिकार? संयुक्त राष्ट्र (UN) की परिभाषा के अनुसार ये अधिकार जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, भाषा, धर्म या किसी अन्य आधार पर भेदभाव किये बिना सभी को प्राप्त हैं। मानवाधिकारों में मुख्यतः जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, गुलामी और यातना से मुक्ति का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और काम एवं शिक्षा का अधिकार, आदि शामिल हैं। कोई भी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के इन अधिकारों को प्राप्त करने का हक़दार होता है। मानवाधिकारों का इतिहास मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (Universal Declaration of Human Rights- UDHR) एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ है, जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर, 1948 को पेरिस में अपनाया गया था। मानव अधिकारों के इतिहास में यह बहुत महत्त्वपूर्ण घोषणा है, क्योंकि इसके द्वारा ही पहली बार मानव अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास किया गया था। हर साल 10 दिसंबर को UDHR की सालगिरह के रूप में मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। 1991 में पेरिस में हुई संयुक्त राष्ट्र की बैठक ने सिद्धांतों का एक समूह (जिन्हें पेरिस सिद्धांतों के नाम से जाना जाता है) तैयार किया जो आगे चलकर राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं की स्थापना और संचालन की नींव साबित हुए। इन्हीं अधिकारों का अनुसरण करते हुए भारत में मानवाधिकारों में अधिक जवाबदेही और मज़बूती लाने के उद्देश्य से मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 बनाया गया। यह अधिनियम सभी राज्य सरकारों को भी राज्य मानवाधिकार आयोग बनाने का अधिकार देता है। मानवाधिकार परिषद मानवाधिकार परिषद एक अंतर-सरकारी निकाय है जिसका गठन 15 मार्च, 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव द्वारा किया गया था। इसे पूर्व में रहे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के स्थान पर लाया गया था। यह पूरी दुनिया में मानवाधिकारों के संवर्द्धन और संरक्षण को बढ़ावा देने के लिये उत्तरदायी है। इसी के साथ यह संस्था मानव अधिकार के उल्लंघनों की भी जाँच करती है। इसके पास मानव अधिकार से जुड़े सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों और विषयों पर चर्चा करने का अधिकार है। यह परिषद संयुक्त राष्ट्र महासभा में चुने गए 47 सदस्य देशों से मिलकर बनती है। NHRC की संरचना NHRC एक बहु-सदस्यीय संस्था है जिसमें एक अध्यक्ष, पाँच पूर्णकालिक सदस्य तथा दो डीम्ड सदस्य होते हैं। यह आवश्यक है कि 7 सदस्यों में कम-से-कम 3 पदेन (Ex-officio) सदस्य हों। अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय कमेटी की सिफारिशों के आधार पर की जाती है। अध्यक्ष और सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्षों या 70 वर्ष की उम्र, जो भी पहले हो, तक होता है। इन्हें केवल तभी हटाया जा सकता है जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की जाँच में उन पर दुराचार या असमर्थता के आरोप सिद्ध हो जाएं। इसके अतिरिक्त आयोग में पाँच विशिष्ट विभाग (विधि विभाग, जाँच विभाग, नीति अनुसंधान और कार्यक्रम विभाग, प्रशिक्षण विभाग और प्रशासन विभाग) भी होते हैं। राज्य मानवाधिकार आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा राज्य के मुख्यमंत्री, गृह मंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के परामर्श पर की जाती है। NHRC के कार्य और शक्तियाँ मानवाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित कोई मामला यदि NHRC के संज्ञान में आता है या शिकायत के माध्यम से लाया जाता है तो NHRC को उसकी जाँच करने का अधिकार है। इसके पास मानवाधिकारों के उल्लंघन से संबंधित सभी न्यायिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार है। आयोग किसी भी जेल का दौरा कर सकता है और जेल में बंद कैदियों की स्थिति का निरीक्षण एवं उसमे सुधार के लिये सुझाव दे सकता है। NHRC संविधान या किसी अन्य कानून द्वारा मानवाधिकारों को बचाने के लिये प्रदान किये गए सुरक्षा उपायों की समीक्षा कर सकता है और उनमें बदलावों की सिफारिश भी कर सकता है। NHRC मानवाधिकार के क्षेत्र में अनुसंधान का कार्य भी करता है। आयोग प्रकाशनों, मीडिया, सेमिनारों और अन्य माध्यमों से समाज के विभिन्न वर्गों के बीच  मानवाधिकारों से जुड़ी जानकारी का प्रचार करता है और लोगों को इन अधिकारों की सुरक्षा के लिये प्राप्त उपायों के प्रति भी जागरूक करता है। आयोग के पास दीवानी अदालत की शक्तियाँ हैं और यह अंतरिम राहत भी प्रदान कर सकता है। इसके पास मुआवज़े या हर्जाने के भुगतान की सिफ़ारिश करने का भी अधिकार है। NHRC की विश्वसनीयता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके पास हर साल बहुत बड़ी संख्या में शिकायतें दर्ज़ होती हैं। यह राज्य तथा केंद्र सरकारों को मानवाधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाने की सिफ़ारिश भी कर सकता है। आयोग अपनी रिपोर्ट भारत के राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करता है जिसे संसद के दोनों सदनों में रखा जाता है। NHRC की सीमाएँ NHRC के पास जाँच करने के लिये कोई भी विशेष तंत्र नहीं है। अधिकतर मामलों में यह संबंधित सरकार को मामले की जाँच करने का आदेश देता है। पीड़ित पक्ष को व्यावहारिक न्याय देने में असमर्थ होने के कारण भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने इसे ‘India’s teasing illusion’ की संज्ञा दी है। NHRC के पास किसी भी मामले के संबंध में मात्र सिफारिश करने का ही अधिकार है, वह किसी को निर्णय लागू करने के लिये बाध्य नहीं कर सकता। कई बार धन की अपर्याप्ता भी NHRC के कार्य में बाधा डालती है। NHRC उन शिकायतों की जाँच नहीं कर सकता जो घटना होने के एक साल बाद दर्ज कराई जाती हैं और इसीलिए कई शिकायतें बिना जाँच के ही रह जाती हैं। अक्सर सरकार या तो NHRC की सिफारिशों को पूरी तरह से खारिज कर देती है या उन्हें आंशिक रूप से ही लागू किया जाता है। राज्य मानवाधिकार आयोग केंद्र सरकार से

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भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक

भारत का नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (CAG-कैग) संभवतः भारत के संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी है। वह ऐसा व्यक्ति है जो यह देखता है कि संसद द्वारा अनुमन्य खर्चों की सीमा से अधिक धन खर्च न होने पाए या संसद द्वारा विनियोग अधिनियम में निर्धारित मदों पर ही धन खर्च किया जाए।” -डॉ. भीम राव अम्बेडकर भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (Comptroller & Auditor General of India-CAG) भारत के संविधान के तहत एक स्वतंत्र प्राधिकरण है। यह भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा विभाग (Indian Audit & Accounts Department) का प्रमुख और सार्वजनिक क्षेत्र का प्रमुख संरक्षक है। इस संस्था के माध्यम से संसद और राज्य विधानसभाओं के लिये सरकार और अन्य सार्वजनिक प्राधिकरणों (सार्वजनिक धन खर्च करने वाले) की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है और यह जानकारी जनसाधारण को दी जाती है। पृष्ठभूमि महालेखाकार का कार्यालय वर्ष 1858 में स्थापित किया गया था, ठीक उसी वर्ष जब अंग्रेज़ों ने ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत का प्रशासनिक नियंत्रण अपने हाथों में लिया था। वर्ष 1860 में सर एडवर्ड ड्रमंड को पहले ऑडिटर जनरल के रूप में नियुक्त किया गया। इसके कुछ समय बाद भारत के महालेखापरीक्षक को भारत सरकार का लेखा परीक्षक और महालेखाकार कहा जाने लगा। वर्ष 1866 में इस पद का नाम बदलकर नियंत्रक महालेखा परीक्षक कर दिया गया और वर्ष 1884 में इसे भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक के रूप में फिर से नामित किया गया। भारत सरकार अधिनियम, 1919 के तहत महालेखापरीक्षक को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया क्योंकि इस पद को वैधानिक दर्जा दिया गया था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने संघीय ढाँचे में प्रांतीय लेखा परीक्षकों के लिये प्रावधान करके महालेखापरीक्षक के पद को और शक्ति दी। इस अधिनियम में नियुक्ति और सेवा प्रक्रियाओं का भी उल्लेख था और भारत के महालेखापरीक्षक के कर्त्तव्यों का संक्षिप्त विवरण भी। वर्ष 1936 के लेखा और लेखा परीक्षा आदेश ने महालेखापरीक्षक के उत्तरदायित्वों और लेखा परीक्षा कार्यों का प्रावधान किया। यह व्यवस्था वर्ष 1947 तक अपरिवर्तित रही। स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 148 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा एक नियंत्रक और महालेखापरीक्षक नियुक्त किये जाने का प्रावधान किया गया। वर्ष 1958 में CAG के क्षेत्राधिकार में जम्मू और कश्मीर को शामिल किया गया। वर्ष 1971 में केंद्र सरकार ने नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कर्त्तव्य, शक्तियाँ और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1971 लागू किया। अधिनियम ने CAG को केंद्र और राज्य सरकारों के लिये लेखांकन और लेखा परीक्षा दोनों की ज़िम्मेदारी दी। वर्ष 1976 में CAG को लेखांकन के कार्यों से मुक्त कर दिया गया। ब्रिटेन के CAG से तुलना भारत का CAG केवल महालेखापरीक्षक की भूमिका निभाता है, नियंत्रक महालेखाकार की नहीं, जबकि ब्रिटेन में महालेखापरीक्षक के साथ-साथ इसमें नियंत्रक महालेखाकार की शक्ति भी निहित होती है। भारत में CAG पैसा खर्च होने के बाद खातों का लेखा-जोखा करता है यानी पोस्ट-फैक्टो, जबकि UK में CAG की मंज़ूरी के बिना सरकारी खजाने से कोई पैसा निकाला ही नहीं जा सकता है। भारत में CAG संसद का सदस्य नहीं होता, जबकि ब्रिटेन में कैग हाउस ऑफ कॉमंस का सदस्य होता है। संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 148 CAG की नियुक्ति, शपथ और सेवा की शर्तों से संबंधित है। अनुच्छेद 149 भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के कर्त्तव्यों और शक्तियों से संबंधित है। अनुच्छेद 150 कहता है कि संघ और राज्यों को खातों का विवरण राष्ट्रपति के अनुसार (CAG की सलाह पर) रखना होगा। अनुच्छेद 151 कहता है कि संघ के खातों से संबंधित CAG की रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी जाएगी, जो संसद के प्रत्येक सदन के पटल पर रखी जाएगी। किसी राज्य के लेखाओं के संबंध में भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक की रिपोर्ट राज्य के राज्यपाल को प्रस्तुत की जाएगी, जो उन्हें राज्य के विधानमंडल के समक्ष रखेगा। अनुच्छेद 279- ‘शुद्ध आय’ की गणना CAG द्वारा प्रमाणित की जाती है, जिसका प्रमाणपत्र अंतिम माना जाता है। तीसरी अनुसूची- भारत के संविधान की तीसरी अनुसूची की धारा IV भारत के CAG और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा पदभार ग्रहण के समय ली जाने वाली शपथ का प्रावधान करती है। छठी अनुसूची- इस अनुसूची के अनुसार, ज़िला परिषद या क्षेत्रीय परिषद के खातों को राष्ट्रपति की अनुमति के साथ CAG द्वारा अनुमोदित प्रारूप के अनुसार रखा जाना चाहिये। इन निकायों के खाते का लेखा-जोखा इस तरह से करना होगा जिस प्रकार CAG उचित समझता है और ऐसे खातों से संबंधित रिपोर्ट राज्यपाल को प्रस्तुत की जाएगी, जो विधानमंडल के समक्ष रखी जाती है। कैग की स्वायत्तता CAG की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये संविधान में कई प्रावधान किये गए हैं। CAG राष्ट्रपति की सील और वारंट द्वारा नियुक्त किया जाता है और इसका कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक होता है। ( दोनों में से जो भी पहले हो) CAG को राष्ट्रपति द्वारा केवल संविधान में दर्ज प्रक्रिया के अनुसार हटाया जा सकता है जो कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के तरीके के समान है। एक बार CAG के पद से सेवानिवृत्त होने/इस्तीफा देने के बाद वह भारत सरकार या किसी भी राज्य सरकार के अधीन किसी भी कार्यालय का पदभार नहीं ले सकता। CAG भारत में सरकार की लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक कड़ी है। अन्य कड़ियों में सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग और संघ लोक सेवा आयोग शामिल हैं। कोई भी मंत्री संसद में CAG का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। CAG का वेतन और अन्य सेवा शर्तें नियुक्ति के बाद भिन्न (कम) नहीं की जा सकतीं। उसकी प्रशासनिक शक्तियाँ और भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा विभाग में सेवारत अधिकारियों की सेवा शर्तें राष्ट्रपति द्वारा उससे परामर्श के बाद ही निर्धारित की जाती हैं। CAG के कार्यालय का प्रशासनिक व्यय, जिसमें सभी वेतन, भत्ते और पेंशन शामिल हैं, भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं जिन पर संसद में मतदान नहीं हो सकता। CAG के कार्य और शक्तियाँ CAG को विभिन्न स्रोतों से ऑडिट करने के अधिकार प्राप्त हैं, जैसे- संविधान का अनुच्छेद 148 से 151 नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कर्त्तव्य, शक्तियाँ और सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1971 महत्त्वपूर्ण निर्णय भारत सरकार के निर्देश लेखा और लेखा-परीक्षा विनियम, 2017 CAG भारत की संचित निधि और प्रत्येक राज्य, केंद्रशासित प्रदेश जिसकी विधानसभा होती है, की संचित निधि से संबंधित खातों के सभी प्रकार के खर्चों का परीक्षण

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नीति आयोग

स्वाधीनता के बाद हमारे देश ने तत्कालीन सोवियत संघ के समाजवादी शासन की संरचना को अपनाया, जिसमें योजनाएँ बनाकर काम किया जाता था। पंचवर्षीय तथा एकवर्षीय योजनाएँ काफी लंबे समय तक देश में चलती रहीं। योजना आयोग ने नियोजन इकाई के रूप दशकों तक योजनाएँ बनाने के काम को अंजाम दिया। लेकिन केंद्र में सत्ता परिवर्तन होने के बाद 1 जनवरी, 2015 को योजना आयोग के स्थान पर केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक संकल्प पर नीति आयोग का गठन किया गया। इसमें सहकारी संघवाद की भावना को केंद्र में रखते हुए अधिकतम शासन, न्यूनतम सरकार के दृष्टिकोण की परिकल्पना को स्थान दिया गया। अप्रासंगिक हो गया था योजना आयोग 65 वर्ष पुराना योजना आयोग कमांड अर्थव्यवस्था संरचना में तो प्रासंगिक था, लेकिन बीते कुछ वर्षों में यह प्रभावी नहीं रह गया था। भारत विविधताओं वाला देश है और इसके राज्य आर्थिक विकास के विभिन्न चरणों में हैं, जिनकी अपनी भिन्न-भिन्न ताकतें और कमज़ोरियाँ हैं। आर्थिक नियोजन के लिये सभी पर एक प्रारूप लागू हो, यह धारणा गलत है। यह आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत को प्रतिस्पर्द्धी के तौर पर स्थापित नहीं कर सकता। नीति आयोग की प्रशासनिक संरचना अध्यक्ष: प्रधानमंत्री उपाध्यक्ष: प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त संचालन परिषद: सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्रशासित प्रदेशों के उपराज्यपाल। क्षेत्रीय परिषद: विशिष्ट क्षेत्रीय मुद्दों को संबोधित करने के लिये प्रधानमंत्री या उसके द्वारा नामित व्यक्ति मुख्यमंत्रियों और उपराज्यपालों की बैठक की अध्यक्षता करता है। तदर्थ सदस्यता: अग्रणी अनुसंधान संस्थानों से बारी-बारी से 2 पदेन सदस्य। पदेन सदस्यता: प्रधानमंत्री द्वारा नामित केंद्रीय मंत्रिपरिषद के अधिकतम चार सदस्य। मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO): भारत सरकार का सचिव जिसे प्रधानमंत्री द्वारा एक निश्चित कार्यकाल के लिए नियुक्त किया जाता है। विशेष आमंत्रित: प्रधानमंत्री द्वारा नामित विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ। नीति आयोग के दो प्रमुख हब टीम इंडिया हब- राज्यों और केंद्र के बीच इंटरफेस का काम करता है। ज्ञान और नवोन्मेष (Knowledge & Innovation) हब- नीति आयोग के थिंक-टैंक की भाँति कार्य करता है। नीति आयोग ने तीन दस्तावेज़ जारी किये हैं, जिसमें 3 वर्षीय कार्य एजेंडा, 7 वर्षीय मध्यम अवधि की रणनीति का दस्तावेज़ और 15 वर्षीय लक्ष्य दस्तावेज़ शामिल हैं। नीति आयोग के उद्देश्य यह मानते हुए कि मज़बूत राज्य ही एक मज़बूत राष्ट्र बनाते हैं, संघीय सहभागिता की भावना को बढ़ाने के लिये राज्यों को निरंतर संरचित समर्थन तंत्र के माध्यम से सहयोग प्रदान करना। ग्रामीण स्तर पर विश्वसनीय योजनाएँ बनाने के लिये तंत्र विकसित करना और सरकार के उच्च स्तरों तक इसे उत्तरोत्तर विकसित करना। राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों में आर्थिक रणनीति और नीतियाँ शामिल की गई हैं। समाज के उन वर्गों पर विशेष ध्यान देना जो आर्थिक प्रगति से पर्याप्त रूप से लाभान्वित नहीं हैं। प्रमुख हितधारकों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय थिंक टैंक जैसे शैक्षिक और नीति अनुसंधान संस्थानों के बीच भागीदारी को प्रोत्साहित करना। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों, चिकित्सकों तथा अन्य भागीदारों के सहयोग से ज्ञान, नवाचार और उद्यमशीलता की सहायता प्रणाली बनाना। विकास एजेंडा के कार्यान्वयन में तेज़ी लाने के लिये अंतर-क्षेत्रीय और अंतर-विभागीय मुद्दों के समाधान हेतु एक मंच प्रदान करना। राज्यों को कला संसाधन केंद्र के रूप में स्थापित करने, शासन पर शोध का केंद्र बनाने एवं सतत और न्यायसंगत विकास में सर्वोत्तम तरीके अपनाने तथा विभिन्न हित धारकों तक उनको पहुँचाना। नीति आयोग और योजना आयोग में प्रमुख अंतर नीति आयोग योजना आयोग यह एक सलाहकार थिंक टैंक के रूप में कार्य करता है। इसने एक संवैधानिक निकाय के रूप में कार्य किया था, जबकि इसे ऐसा दर्जा नहीं मिला था। यह सदस्यों की व्यापक विशेषज्ञता पर बल देता है। यह सीमित विशेषज्ञता पर निर्भर था। यह सहकारी संघवाद की भावना पर कार्य करता है क्योंकि यह राज्यों की समान भागीदारी सुनिश्चित करता है। इसकी वार्षिक योजना बैठकों में राज्यों की भागीदारी बहुत कम रहती थी। प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त सचिवों को CEO के रूप में जाना जाता है। सचिवों को सामान्य प्रक्रिया के माध्यम से नियुक्त किया जाता था। यह Bottom-Up Approach पर कार्य करता है। यह Top-Down Approach पर कार्य करता था। इसे नीतियाँ लागू करने का अधिकार नहीं है। यह राज्यों के लिये नीतियाँ बनाता था और स्वीकृत परियोजनाओं के लिये धन आवंटित करता था। इसे धन आवंटित करने की शक्तियाँ नहीं हैं जो वित्त मंत्री में निहित हैं। इसे मंत्रालयों और राज्य सरकारों को धन आवंटित करने की शक्तियाँ प्राप्त थीं। योजना का विकेंद्रीकरण है, लेकिन पंचवर्षीय योजना के भीतर। परंपरागत नौकरशाही के स्थान पर विशेषज्ञता और प्रदर्शन के आधार पर ज़िम्मेदारियाँ तय करना। नीति आयोग समय के साथ परिवर्तन के एक एजेंट के रूप में उभर सकता है और सार्वजनिक सेवाओं की बेहतर डिलीवरी करने तथा उसमें सुधार के एजेंडे में योगदान दे सकता है। नीति आयोग में देश में कुशल, पारदर्शी, नवीन और जवाबदेह शासन प्रणाली का प्रतिनिधि बनने की क्षमता है। योजना आयोग की तुलना में नीति आयोग को अधिक विश्वसनीय बनाने के लिये इसे बजटीय प्रावधानों में स्वतंत्रता होनी चाहिये और यह योजना तथा गैर-योजना के रूप में नहीं बल्कि राजस्व और पूंजीगत व्यय की स्वतंत्रता के रूप में होनी चाहिये। इस पूंजीगत व्यय की वृद्धि से अर्थव्यवस्था में सभी स्तरों पर बुनियादी ढाँचे का घाटा दूर हो सकता है। (नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया थे तथा वर्तमान में सुमन बेरी इसके उपाध्यक्ष हैं और परमेश्वरन अय्यर CEO हैं) नीति आयोग की पहलें:   SDG  इंडिया इंडेक्स   समग्र जल प्रबंधन सूचकांक   अटल इनोवेशन मिशन   साथ परियोजना  आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम   स्कूल शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक   ज़िला अस्पताल सूचकांक   स्वास्थ्य सूचकांक   कृषि विपणन और किसान हितैषी सुधार सूचकांक   भारत नवाचार सूचकांक   वुमन ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया अवार्ड्स   सुशासन सूचकांक   आगे की राह:   नियोजन निकाय को आवश्यक शक्तियों से लैस करना ताकि वह परिवर्तन को प्रभावित कर सके।    पर्याप्त संसाधनों के आवंटन की ज़रूरत है।   लक्ष्यों को पूरा करने में असमर्थता के लिये इसे विधायिका के प्रति कानूनी रूप से जवाबदेह बनाया जा सकता है।    सुनिश्चित करें कि नियोजन निकाय एक गैर-पक्षपाती संस्था बना रहे।   नौकरशाही की जड़ता को हिलाने की ज़रूरत है, इसमें विशेषज्ञता और प्रदर्शन के आधार पर जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है। 

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भारत निर्वाचन आयोग

निर्वाचन आयोग क्या है? भारत निर्वाचन आयोग, जिसे चुनाव आयोग के नाम से भी जाना जाता है, एक स्वायत्त संवैधानिक निकाय है जो भारत में संघ और राज्य चुनाव प्रक्रियाओं का संचालन करता है। यह देश में लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव का संचालन करता है। पृष्ठभूमि भारतीय संविधान का भाग 15 चुनावों से संबंधित है जिसमें चुनावों के संचालन के लिये एक आयोग की स्थापना करने की बात कही गई है। चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी, 1950 को संविधान के अनुसार की गई थी। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक चुनाव आयोग और सदस्यों की शक्तियों, कार्य, कार्यकाल, पात्रता आदि से संबंधित हैं। संविधान में चुनावों से संबंधित अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग में चुनावों के लिये निहित दायित्व: अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण। 325 धर्म, जाति या लिंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति विशेष को मतदाता सूची में शामिल न करने और इनके आधार पर मतदान के लिये अयोग्य नहीं ठहराने का प्रावधान। 326 लोकसभा एवं प्रत्येक राज्य की विधानसभा के लिये निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा। 327 विधायिका द्वारा चुनाव के संबंध में संसद में कानून बनाने की शक्ति। 328 किसी राज्य के विधानमंडल को इसके चुनाव के लिये कानून बनाने की शक्ति। 329 चुनावी मामलों में अदालतों द्वारा हस्तक्षेप करने के लिये बार (BAR)   निर्वाचन आयोग की संरचना निर्वाचन आयोग में मूलतः केवल एक चुनाव आयुक्त का प्रावधान था, लेकिन राष्ट्रपति की एक अधिसूचना के ज़रिये 16 अक्तूबर, 1989 को इसे तीन सदस्यीय बना दिया गया। इसके बाद कुछ समय के लिये इसे एक सदस्यीय आयोग बना दिया गया और 1 अक्तूबर, 1993 को इसका तीन सदस्यीय आयोग वाला स्वरूप फिर से बहाल कर दिया गया। तब से निर्वाचन आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त होते हैं। निर्वाचन आयोग का सचिवालय नई दिल्ली में स्थित है। मुख्य निर्वाचन अधिकारी IAS रैंक का अधिकारी होता है, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करता है। इनका कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु ( दोनों में से जो भी पहले हो) तक होता है। इन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष दर्जा प्राप्त होता है और समान वेतन एवं भत्ते मिलते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त को संसद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया के समान ही पद से हटाया जा सकता है। हटाने की प्रक्रिया उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक को दुर्व्यवहार या पद के दुरुपयोग का आरोप सिद्ध होने पर या अक्षमता के आधार पर संसद द्वारा अपनाए गए प्रस्ताव के माध्यम से ही पद से हटाया जा सकता है। निष्कासन के लिये दो-तिहाई सदस्यों के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है और इसके लिये सदन के कुल सदस्यों का 50 प्रतिशत से अधिक मतदान होना चाहिये। उपरोक्त पदों से किसी को हटाने के लिये संविधान में ‘महाभियोग’ शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। महाभियोग शब्द का प्रयोग केवल राष्ट्रपति को हटाने के लिये किया जाता है जिसके लिये संसद के दोनों सदनों में उपस्थित सदस्यों की कुल संख्या के दो-तिहाई सदस्यों के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है और यह प्रक्रिया किसी अन्य मामले में नहीं अपनाई जाती। निर्वाचन आयोग के कार्य चुनाव आयोग भारत में लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव की संपूर्ण प्रक्रिया का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य आम चुनाव या उप-चुनाव कराने के लिये समय-समय पर चुनाव कार्यक्रम तय करना है। यह निर्वाचक नामावली (Voter List) तैयार करता है तथा मतदाता पहचान पत्र (EPIC) जारी करता है। यह मतदान एवं मतगणना केंद्रों के लिये स्थान, मतदाताओं के लिये मतदान केंद्र तय करना, मतदान एवं मतगणना केंद्रों में सभी प्रकार की आवश्यक व्यवस्थाएँ और अन्य संबद्ध कार्यों का प्रबंधन करता है। यह राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करता है उनसे संबंधित विवादों को निपटाने के साथ ही उन्हें चुनाव चिह्न आवंटित करता है। निर्वाचन के बाद अयोग्य ठहराए जाने के मामले में आयोग के पास संसद और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों की बैठक हेतु सलाहकार क्षेत्राधिकार भी है। यह राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिये चुनाव में ‘आदर्श आचार संहिता’ जारी करता है, ताकि कोई अनुचित कार्य न करे या सत्ता में मौजूद लोगों द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग न किया जाए। यह सभी राजनीतिक दलों के लिये प्रति उम्मीदवार चुनाव अभियान खर्च की सीमा निर्धारित करता है और उसकी निगरानी भी करता है। भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) का महत्त्व यह वर्ष 1952 से राष्ट्रीय और राज्य स्तर के चुनावों का सफलतापूर्वक संचालन कर रहा है। मतदान में लोगों की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये सक्रिय भूमिका निभाता है। राजनीतिक दलों को अनुशासित करने का कार्य करता है। संविधान में निहित मूल्यों को मानता है अर्थात चुनाव में समानता, निष्पक्षता, स्वतंत्रता स्थापित करता है। विश्वसनीयता, निष्पक्षता, पारदर्शिता, अखंडता, जवाबदेही, स्वायत्तता और कुशलता के उच्चतम स्तर के साथ चुनाव आयोजित/संचालित करता है। मतदाता-केंद्रित और मतदाता-अनुकूल वातावरण की चुनावी प्रक्रिया में सभी पात्र नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करता है। चुनावी प्रक्रिया में राजनीतिक दलों और सभी हितधारकों के साथ संलग्न रहता है। हितधारकों, मतदाताओं, राजनीतिक दलों, चुनाव अधिकारियों, उम्मीदवारों के बीच चुनावी प्रक्रिया और चुनावी शासन के बारे में जागरूकता पैदा करता है तथा देश की चुनाव प्रणाली के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ाने और उसे मज़बूती प्रदान करने का कार्य करता है। चुनावी सुधारों पर निर्वाचन आयोग की सिफारिशें: वर्ष 2020 में, ECI के अधिकारियों और राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारियों सहित नौ कार्यसमूहों ने चुनावी सुधारों पर अपनी मसौदा सिफारिशें प्रस्तुत कीं। सिफारिशों में शामिल हैं:  नए मतदाताओं के पंजीकरण और पते में परिवर्तन सहित विभिन्न मतदाता सेवाओं के लिये सभी प्रपत्रों (Forms) को एक ही प्रपत्र से प्रतिस्थापित करना।  कई संख्या में फॉर्म भ्रम पैदा करते हैं और प्रक्रिया में दक्षता को प्रभावित करते हैं।  17 वर्ष की आयु में सभी संभावित मतदाताओं के लिये स्कूल या कॉलेज स्तर पर ऑनलाइन पंजीकरण की सुविधा शुरू करना ताकि 18 वर्ष की आयु में पात्र होते ही उन्हें मतदाता सूची में नामांकित किया जा सके।  ECI ने मतदाता के रूप में नामांकन के लिये एक

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राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA)

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भारत में आपदा प्रबंधन के लिये शीर्ष वैधानिक निकाय है। इसका ओपचारिक रूप से गठन 27 सितम्बर, 2006 को आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत हुआ जिसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष और नौ अन्य सदस्य होंगे और इनमें से एक सदस्य को उपाध्यक्ष पद दिया जाएगा। अधिदेश: इसका प्राथमिक उद्देश्य प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं के दौरान प्रतिक्रियाओं में समन्वय कायम करना और आपदा-प्रत्यास्थ (आपदाओं में लचीली रणनीति) व संकटकालीन प्रतिक्रिया हेतु क्षमता निर्माण करना है। आपदाओं के प्रति समय पर और प्रभावी प्रतिक्रिया के लिये आपदा प्रबंधन हेतु नीतियाँ, योजनाएँ और दिशा-निर्देश तैयार करने हेतु यह एक शीर्ष निकाय है। विजन: एक समग्र, अग्रसक्रिय तकनीक संचालित और संवहनीय विकास रणनीति के द्वारा एक सुरक्षित और आपदा-प्रत्यास्थ भारत बनाना, जिसमें सभी हितधारकों की मौजूदगी हो तथा जो रोकथाम, तैयारी और शमन की संस्कृति का पालन करती हो। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का विकास आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को राष्ट्रीय प्राथमिकता का महत्त्व देते हुए भारत सरकार ने अगस्त 1999 में एक उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी और वर्ष 2001 के गुजरात भूकंप के बाद एक राष्ट्रीय कमेटी का गठन आपदा प्रबंधन योजनाओं पर तैयारी की सिफ़ारिश करने और प्रभावी शमन सुझाने हेतु किया। दसवीं पंचवर्षीय योजना के अभिलेख में भी प्रथम बार आपदा प्रबंधन पर एक विस्तृत अध्याय है। बारहवें वित्त आयोग को भी आपदा प्रबंधन हेतु वित्तीय प्रबंध की समीक्षा हेतु अधिदेश दिया गया था। 23 दिसंबर, 2005 को भारत सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम बनाया जिसमें प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA), और संबद्ध मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों (SDMAs) की स्थापना की परिकल्पना भारत में आपदा प्रबंधन का नेतृत्व करने और उसके प्रति एक समग्र व एकीकृत दृष्टिकोण कार्यान्वित करने हेतु की गई। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कार्य तथा उत्तरदायित्व राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना को स्वीकृति देना। आपदा प्रबंधन हेतु नीतियाँ तैयार करना। राष्ट्रीय योजना के अनुसार केंद्र सरकार के मंत्रालयों या विभागों द्वारा बनाई गई योजनाओं को स्वीकृत करना। ऐसे दिशा-निर्देश तैयार करना जिनका अनुसरण कर राज्य के प्राधिकारी राज्य योजना तैयार कर सकें। ऐसे दिशा-निर्देश तैयार करना जिनका अनुसरण केंद्रीय सरकार के मंत्रालयों या विभागों द्वारा आपदा रोकथाम के उपायों को एकीकृत करने या आपदा प्रभावों के शमन हेतु अपनी विकास योजनाओं ओर परियोजनाओं में किया जा सके। आपदा प्रबंधन नीति एवं योजना के प्रवर्तन और कार्यान्वयन में समन्वय करना। शमन के लिये निधियों के प्रावधान की सिफ़ारिशें करना। अन्य ऐसे देशों को जो कि बड़ी आपदाओं से प्रभावित होते हैं, ऐसी सहायता देना जो केंद्रीय सरकार द्वारा निर्धारित की गई है । भयावह आपदा स्थितियों या आपदाओं से निपटने हेतु रोकथाम या शमन या तैयारी और क्षमता निर्माण के ऐसे अन्य उपाय अपनाना जिन्हें वह आवश्यक समझे। राष्ट्रीय आपदा प्रबंध संस्थान की कार्यपद्धति हेतु व्यापक नीतियाँ और दिशा-निर्देश तैयार करना। भारत में आपदा प्रबंधन हेतु संस्थागत संरचना आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 ने भारत में आपदा प्रबंधन हेतु कानूनी और संस्थागत संरचना का प्रावधान राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर किया है। भारत की संघीय राजनीति में आपदा प्रबंधन का प्राथमिक उत्तरदायित्व राज्य सरकारों में निहित है। हालाँकि, आपदा प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति केंद्र, राज्य और जिले के लिये सभी के लिये एक सक्षम वातावरण बनाती है आपदा प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति, 2009 को आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अनुरूप और उसके अनुसरण में तैयार किया गया है। यह समग्र रूप से आपदाओं से निपटने हेतु रूपरेखा/रोडमैप प्रदान करती है। अधिनियम के प्रावधानों के तहत आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना 3 स्तरों पर की गई है। राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) की स्थापना प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में की गई है और NDMA को उसके कार्यों के प्रदर्शन में सहायता करने के लिये सचिवों की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (NEC) बनाई गई है। राज्य स्तर पर, राज्य के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया गया है, जिसे एक राज्य कार्यकारी समिति द्वारा सहायता प्रदान की जाती है। ज़िला स्तर पर ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाए गए हैं। यह आपदा प्रबंधन के लिये नीतियों, योजनाओं और दिशा-निर्देशों का निर्धारण करता है ताकि आपदा तथा दीर्घकालिक आपदा जोखिम में कमी के लिये समय पर और प्रभावी प्रतिक्रिया सुनिश्चित की जा सके। भारत आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंडाई फ्रेमवर्क (SFDRR) का भी एक हस्ताक्षरकर्त्ता है जो आपदा प्रबंधन लक्ष्यों का निर्धारण करता है। केंद्र सरकार योजनाएँ, नीतियां और दिशा-निर्देश तैयार करती है और तकनीकी, वित्तीय और संभरण सहायता देती है जबकि जिला प्रशासन केंद्रीय और राज्य स्तर की एजेंसियों के साथ मिलकर अधिकांश कार्यों को सम्पन्न करता है। राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (NEC) आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 8 के तहत राष्ट्रीय प्राधिकरण को उसके कार्यों के निष्पादन में सहायता देने के लिये एक राष्ट्रीय कार्यकारी समिति का गठन किया जाता है। केंद्रीय गृह सचिव इसका पदेन अध्यक्ष होता है। राष्ट्रीय कार्यकारी समिति को आपदा प्रबंधन हेतु समन्वयकारी और निगरानी निकाय के रूप में कार्य करने, राष्ट्रीय योजना बनाने और राष्ट्रीय नीति का कार्यान्वयन करने का उत्तरदायित्व दिया गया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) के पास NDMA द्वारा सृजित व्यापक नीतियों और दिशा-निर्देशों के अधीन आपदा प्रबंधन के लिये मानव संसाधन विकास और क्षमता निर्माण का अधिदेश है। राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF) राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF) आपदा मोचन हेतु एक विशेषीकृत बल है और यह NDMA के समग्र पर्यवेक्षण और नियंत्रण में कार्य करता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (NDMP) प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने 1 जून, 2016 को राष्‍ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (NDMP) जारी की थी। देश में पहली बार इस तरह की राष्‍ट्रीय योजना तैयार की गई है। मुख्य विशेषताएं NDMP आपदा जोखिम घटाने के लिये प्रमुखतः सेंडाई फ्रेमवर्क में तय किये गए लक्ष्‍यों और प्राथमिकताओं के साथ तालमेल करता है। योजना का विज़न भारत को आपदा मुक्‍त बनाना, आपदा जोखिमों में पर्याप्‍त रूप से कमी लाना, जन-धन, आजीविका और संपदाओं (आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक, सांस्‍कृतिक और पर्यावरणीय) के नुकसान को कम करना है। इसके लिये प्रशासन के सभी स्तरों और साथ ही समुदायों की आपदाओं से निपटने की क्षमता को बढ़ाया गया है। प्रत्‍येक खतरे के लिये, सेंडाई फ्रेमवर्क में घोषित चार प्राथमिकताओं को आपदा जोखिम में कमी करने के फ्रेमवर्क में शामिल किया गया

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