Current Affairs For India & Rajasthan | Notes for Govt Job Exams

Hot Topics

सिर्फ एक रात में एग्जाम में पास करने के कुछ आसान उपाय

क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि कल सुबह आपको एग्जाम देने जाना है और आपको अपने कोर्स और लेसंस के नाम तक नहीं पता हैं? असल में आपको यह नहीं पता कि कल आप एग्जाम कैसे देंगे क्योंकि आपने उस एग्जाम की तैयारी बिलकुल नहीं की है. लेकिन, अगर आपके साथ कभी ऐसा हो भी जाए तो चिंता न करें क्योंकि यहां अगर आपका उत्तर ‘हां’ है तो भी आपको कोई अन्य व्यक्ति देख नहीं रहा है और न ही किसी अन्य व्यक्ति को इस बात से कोई फर्क पड़ेगा. उक्त स्थिति में अच्छे मार्क्स के साथ पास होना वास्तव में काफी मुश्किल है लेकिन, फिर भी; हमने आपके लिए कुछ ऐसे टिप्स इस आर्टिकल में पेश किये हैं जिससे आप कम से कम अपने उस (कल सुबह होने वाले) एग्जाम में फेल होने से जरुर बच जायेगे. ऐसी जगह तलाशें जो बहुत आरामदायक न हो अब, उक्त प्वाइंट बहुत स्पष्ट है. अगर आप अपने बेड में बैठकर पढ़ते हैं तो ऐसा होने की काफी संभावना है कि आप कुछ देर पढ़कर ही सो जायें. अगर आप पहले से घबरा रहे हैं तो अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए आपको काफी ज्यादा प्रेरणा के साथ ही अपना निजी संतुलन बनाये रखने की आवश्यकता होती है. किसी भी तरह की सुस्ती या आलस इस समय आपके लिए काफी हानिकारक होगा. अपने कमरे में अच्छी रोशनी करके अपने दिमाग को यह जताने की कोशिश करें कि अभी दिन का समय है. ऐसा करने पर आप अपने बिस्तर पर लेटे बगैर ही अपनी पढ़ाई में अच्छी तरह फोकस कर सकेंगे. अपने गैजेट्स का इस्तेमाल करने से बचें कौन-सा छात्र एग्जाम के दिनों में यह जानना नहीं चाहता है कि उसके सहपाठियों ने कल होने वाले एग्जाम की कितनी तैयारी कर ली है? यकीनन, आप यह जानने की कोशिश बिलकुल न करें कि आपके दोस्तों या सहपाठियों ने कितनी ज्यादा तैयारी कर ली है क्योंकि वास्तव में इससे आपको किसी भी तरह का कोई फायदा नहीं होने वाला है और न ही कल सुबह होने वाले एग्जाम के लिए आपकी तैयारी पर इस बात का कोई फर्क ही पड़ेगा. इस दौरान आप सोशल मीडिया और अन्य प्लेटफॉर्म्स से अपनी दूरी बना कर रखें. अगर आप एक रात अपने फेसबुक अपडेट्स नहीं देखेंगे तो यह दुनिया खत्म नहीं हो जायेगी. अपनी पढ़ाई पर इस समय आपका पूरा फोकस होना चाहिए और आपको एकाग्र होकर पढ़ने के अलावा इस समय कोई दूसरा काम नहीं करना चाहिए. पढ़ते समय खाने से हटायें अपना ध्यान अगर आपका पेट भरा है तो ही आप अपनी पढ़ाई पर पूरी तरह फोकस कर सकते हैं. पौष्टिक खाना उचित मात्रा में खायें ताकि पढ़ते समय आपका ध्यान सिर्फ अपनी भूख या खाने की तरफ न जाये. हो सके तो इस दौरान कॉफ़ी बिलकुल न पीयें. कॉफ़ी पीने से शायद आपको सारी रात नींद न आये लेकिन, एग्जाम के दौरान जब आपको असल में सचेत और चौकस रहने की बहुत आवश्यकता होगी तो आपको पहले से कहीं ज्यादा नींद आने लगेगी. रात में कॉफ़ी पीने के बजाय कुछ पौष्टक जैसे, 1 सेब आदि खा लें क्योंकि सेब काफी पौष्टिक होता है और इसमें काफी मात्रा में शुगर होने की वजह से आपको सेब खाने से संतोष भी मिलता है. शांत रहकर करें पढ़ाई यह शायद आपको काफी मुश्किल लगे लेकिन, अगर आप कल होने वाले एग्जाम में पास होना चाहते हैं तो आपको अपना संतुलन और शांति बनाये रखकर ही अपनी पढ़ाई जारी रखनी होगी. अगर आप अपनी पढ़ाई की शुरुआत अच्छी करते हैं तो इस बात की काफी संभावना होती है कि आप कल होने वाले एग्जाम के लिए इतनी तैयारी तो कर लें कि आपको उस एग्जाम में पास मार्क्स मिल जायें. शायद, आपको अपनी उम्मीद से कुछ ज्यादा ही मार्क्स मिल जायें. आपको अपने कल के एग्जाम के लिए जो भी उपयोगी नोट्स या रीडिंग मेटीरियल मिले, उसे अच्छी तरह समझ कर पढ़ें और एक बार अच्छी तरह पढ़ लेने के बाद अगर टाइम बचे तो दुबारा अपने स्टडी मेटीरियल को पढ़ें क्योंकि अक्सर एग्जाम्स में क्लास-नोट्स में से ही प्रश्न पूछे जाते हैं. विस्तृत अध्ययन करने से बचें एग्जाम से पहली रात को आपके पास बहुत ही कम समय होता है और आपको इस सीमित समय के भीतर काफी ज्यादा कोर्स कवर करना होता है. इसलिये, आप इस समय हरेक टॉपिक को पूरे विस्तार से न पढ़ें. आप इस दौरान केवल मुख्य-मुख्य टॉपिक्स और उनके सब-प्वाइंट्स को ही अच्छी तरह पढ़ें और इन टॉपिक्स के बाकी डिटेल्स पर सरसरी नजर ही डालें. आप एग्जाम के दौरान हमेशा मुख्य टॉपिक और सब-हेड्स के अनुसार विवरण लिख सकते हैं. किसी भी टॉपिक के मुख्य विचार और महत्वपूर्ण फार्मूले याद करने की कोशिश करें. शुरू में केवल मुख्य प्वाइंट्स को ही याद करें और अगर आपके पास टाइम बचे तो आप टॉपिक्स के डिटेल्स पढ़ सकते हैं. एग्जाम से पहली रात को सब कुछ पढ़ने की कोशिश करना अक्लमंदी नहीं है. केवल उन टॉपिक्स को ही पढ़ें जिनसे आपके एग्जाम में अच्छे मार्क्स आ सकें. अगर आपके प्रोफेसर ने कहा है कि आपके एग्जाम में ऐस्से टाइप क्वेश्चन्स के लिए 75% मार्क्स निर्धारित होंगे तो आप ऐसे क्वेश्चन्स की ही तैयारी करें और मल्टीपल चॉइस/ बहु विकल्प प्रश्न छोड़ दें. एग्जाम से पहली रात को महत्वपूर्ण चैप्टर्स की समरी पढ़ना भी काफी अच्छा आइडिया है क्योंकि ऐसा करने पर आप कम समय में किसी भी चैप्टर के सभी महत्वपूर्ण प्वाइंट्स को समझ लेंगे. अगर किसी चैप्टर में समरी नहीं दी गई है तो आप उस चैप्टर को सरसरी नजर से पढ़कर महत्वपूर्ण प्वाइंट्स के नोट्स बना सकते हैं. अपनी तैयारी हेतु बनाएं मेंटल फ्लोचार्ट किसी खास अवधारणा या कांसेप्ट को लंबे समय तक याद रखने में फ्लोचार्ट काफी मदद करता है क्योंकि हमारा दिमाग किसी भी विषयवस्तु के विस्तृत विवरण के बजाय, उस विषय को निर्धारित क्रम से ज्यादा अच्छी तरह याद रख सकता है. अपने दिमाग में सूचना और जानकारी को इस तरीके से संजोने पर आप एग्जाम में वह सूचना और जानकारी ज्यादा अच्छे तरीके से लिख सकेंगे. बीच-बीच में लें छोटे ब्रेक्स  पढ़ते समय बीच-बीच में छोटे-छोटे ब्रेक लेने और अपने पढ़ने की जगह बदलने से

सिर्फ एक रात में एग्जाम में पास करने के कुछ आसान उपाय Read More »

ओरछा वन्य जीव अभयारण्य में अवैध खनन

चर्चा में क्यों? हाल ही में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (National Green Tribunal- NGT) ने ओरछा वन्यजीव अभयारण्य के इको-सेंसिटिव ज़ोन में पत्थर तोड़ने वाले और खनन खदानों के अवैध संचालन की शिकायत पर गौर करने के लिये एक समिति का गठन किया। मुख्य बिंदु: NGT के अनुसार, 337 टन रासायनिक अपशिष्ट के निपटान, भूजल प्रदूषण, पाइप से पानी की कमी और अनुमेय सीमा से अधिक लौह, मैंगनीज़ तथा नाइट्रेट सांद्रता की निगरानी के लिये तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। इसकी स्थापना वर्ष 1994 में हुई थी और यह एक बड़े वन क्षेत्र के भीतर स्थित है। यह मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीच सीमा क्षेत्र में बेतवा नदी (यमुना की एक सहायक नदी) के पास स्थित है, जो इस अभयारण्य के अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र तथा जैवविविधता में योगदान देती है। पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) की राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2002-2016) ने निर्धारित किया कि राज्य सरकारों को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव अभयारण्यों की सीमाओं के 10 किमी. के भीतर आने वाली भूमि को पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (ESZs) अथवा पर्यावरण नाज़ुक क्षेत्र के रूप में घोषित करना चाहिये जबकि 10 किमी. का नियम एक सामान्य सिद्धांत के रूप में लागू किया गया है, इसके आवेदन की सीमा भिन्न हो सकती है। 10 किमी. से अधिक के क्षेत्रों को भी केंद्र सरकार द्वारा ESZ के रूप में अधिसूचित किया जा सकता है, यदि वे बड़े पारिस्थितिक रूप से महत्त्वपूर्ण “संवेदनशील गलियारे” रखते हैं।

ओरछा वन्य जीव अभयारण्य में अवैध खनन Read More »

IMD द्वारा हीट वेव का पूर्वानुमान

चर्चा में क्यों? भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ने पश्चिम राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश और दक्षिण हरियाणा में स्थिति के साथ उत्तर पश्चिम भारत में हीट वेव का पूर्वानुमान लगाया है। मुख्य बिंदु: क्षेत्रीय मौसम केंद्र (RWFC) दिल्ली के अनुसार, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम राजस्थान और पूर्वी राजस्थान में अलग-अलग स्थानों पर हीट वेव का भी अनुमान है। लोकसभा चुनाव 2024 के चौथे चरण के दौरान, भारतीय निर्वाचन आयोग ने कहा कि मौसम के पूर्वानुमान से संकेत मिलता है कि चुनाव के लिये जाने वाले संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में सामान्य से कम तापमान रहने की संभावना है और मतदान के दिन इन क्षेत्रों में हीट वेव जैसी कोई स्थिति नहीं होगी। भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department- IMD)  IMD की स्थापना वर्ष 1875 में हुई थी। यह देश की राष्ट्रीय मौसम विज्ञान सेवा है और मौसम विज्ञान एवं संबद्ध विषयों से संबंधित सभी मामलों में प्रमुख सरकारी एजेंसी है। यह भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक एजेंसी के रूप में कार्य करती है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। IMD विश्व मौसम विज्ञान संगठन के छह क्षेत्रीय विशिष्ट मौसम विज्ञान केंद्रों में से एक है।

IMD द्वारा हीट वेव का पूर्वानुमान Read More »

झारखंड के खूँटी में विकास का अभाव

चर्चा में क्यों? लोकसभा चुनाव 2024 के बीच झारखंड के खूँटी, सिंहभूम और लोहरदगा में कई आदिवासी मतदाता विकास एवं बुनियादी सुविधाओं की कमी से नाखुश हैं। मुख्य बिंदु: आदिवासी आदर्श बिरसा मुंडा की जन्मस्थली, झारखंड के खूँटी लोकसभा क्षेत्र के एक गाँव उलिहातु में निवासियों में असंतोष है। विकास और बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण क्षेत्र में राजनीतिक उत्साह की कमी नज़र आ रही है तथा किसी भी पार्टी को खुला समर्थन नहीं मिल रहा है। हाल के वर्षों में, गाँव में तारकोल वाली सड़कें, स्कूल और पानी की टंकियाँ जैसे नए बुनियादी ढाँचे सहित विकास दिखाई दे रहा है। प्रधानमंत्री ने यहाँ दौरा किया और 24,000 करोड़ रुपए के विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) विकास मिशन का शुभारंभ किया। केंद्र सरकार ने बिरसा मुंडा की जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस‘ के रूप में मनाया। बिरसा मुंडा (Birsa Munda)   बिरसा मुंडा का जन्म वर्ष 1875 में हुआ था। वे मुंडा जनजाति के थे। उन्होंने 19वीं शताब्दी के अंत में आधुनिक झारखंड और बिहार के आदिवासी क्षेत्र में ब्रिटिश शासन के दौरान एक भारतीय आदिवासी धार्मिक मिलेनेरियन आंदोलन का नेतृत्व किया। विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) विकास मिशन PM-PVTG विकास मिशन कार्यक्रम का उद्देश्य कमज़ोर जनजातीय समूहों (PVTG) की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार करना है। इसके लिये केंद्रीय बजट में अनुसूचित जनजातियों के लिये 24,000 करोड़ रुपए की उपलब्धता की परिकल्पना की गई है। मिशन में पिछड़ी अनुसूचित जनजातियों के लिये सुरक्षित आवास, स्वच्छ पेयजल एवं स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण, बस्तियों में सड़कों तक बेहतर पहुँच जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करना शामिल है।

झारखंड के खूँटी में विकास का अभाव Read More »

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री का निधन

चर्चा में क्यों? हाल ही में वरिष्ठ राजनेता और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का 72 वर्ष की आयु में नई दिल्ली में निधन हो गया। वह कैंसर से पीड़ित थे। मुख्य बिंदु: वह वर्ष 2005 से 2013 और वर्ष 2017 से 2020 तक बिहार के उपमुख्यमंत्री के साथ-साथ बिहार के वित्त मंत्री भी रहे। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आजीवन सदस्य रहे उन्हें जुलाई वर्ष 2011 में वस्तु एवं सेवा कर के कार्यान्वयन के लिये राज्य के वित्त मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। उपमुख्यमंत्री भारत में उपमुख्यमंत्री का पद कोई संवैधानिक पद नहीं है, बल्कि किसी पार्टी के भीतर सहयोगियों या गुटों को खुश करने के लिये एक राजनीतिक व्यवस्था है। वह रैंक और भत्तों के मामले में एक कैबिनेट मंत्री के समतुल्य होता है लेकिन उसके पास कोई विशिष्ट वित्तीय या प्रशासनिक शक्तियाँ नहीं होती हैं। उपमुख्यमंत्री को मुख्यमंत्री को रिपोर्ट करना होता है और अपने पोर्टफोलियो से संबंधित किसी भी निर्णय के लिये उसकी स्वीकृति लेनी होती है। उपमुख्यमंत्री के पास उन फाइलों या मामलों तक पहुँच नहीं है जो मुख्यमंत्री के लिये हैं। न तो अनुच्छेद 163 और न ही अनुच्छेद 164(1) में स्पष्ट रूप से उप मुख्यमंत्री की स्थिति का उल्लेख है। अनुच्छेद 163(1) राज्यपाल की सहायता और सलाह देने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद की स्थापना का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 164(1) नियुक्ति प्रक्रिया की रूपरेखा प्रदान करता है, जिसमें मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री की सलाह पर की जाती है।

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री का निधन Read More »

लुप्तप्राय हिमालयी जीवों पर वनाग्नि के कारण संकट

चर्चा में क्यों? वन विभाग के अनुसार, उत्तराखंड में प्रत्येक वर्ष घटित होने वाली वनाग्नि क्षेत्र के बहुमूल्य वन संसाधनों जैसे: पेड़, पौधों, झाड़ियों, जड़ी-बूटियों और मृदा की मोटी उर्वर परतों को काफी नुकसान पहुँचाती है। इससे लुप्तप्राय हिमालयी जीवों जैसे- वन्य जीवों, सरीसृपों, स्तनधारियों, पक्षियों, तितलियों, मधुमक्खियों और मृदा को समृद्ध करने वाले जीवाणुओं पर भी संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। मुख्य बिंदु: चीयर तीतर, कलिज तीतर, रूफस-बेलिड कठफोड़वा, कॉमन रोज़, चॉकलेट पैंसी एवं कौवा जैसी एवियन प्रजातियों का प्रजनन काल मार्च से जून तक होता है और यही वह अवधि है जब इस क्षेत्र के वनों में सबसे अधिक आगजनी की घटना होती है। हिमालयी तितलियों के संरक्षण की दिशा में कार्य कर रहे एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) के अनुसार, हिमालय क्षेत्र में तितलियों की कुल 350 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें 120 प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं क्योंकि ये वनाग्नि की घटना में नष्ट हुए पोषण देने वाले पौधों पर ही प्रजनन के लिये आश्रित होती हैं। देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान द्वारा पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में पाए जाने वाले येलो हेडेड कछुए पर वनाग्नि के प्रभाव पर भी शोध किया जा रहा है। यह वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 4 में सूचीबद्ध है और इसके लुप्तप्राय होने के कारण यह वन्य जीवों और वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) के परिशिष्ट में भी दर्ज किया गया है। वन विभाग के अनुसार, नवंबर 2023 से अब तक उत्तराखंड में वनाग्नि की घटना ने 1,437 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्रों को प्रभावित किया है। चीयर तीतर (Cheer Pheasant)    चीयर तीतर (Catreus wallichii), जिसे वालिश तीतर के नाम से भी जाना जाता है, तीतर वर्ग Phasianidae की एक सुभेद्य प्रजाति है। यह Catreus प्रजाति का एकमात्र सदस्य है। IUCN रेड लिस्ट स्थिति:  CITES स्थिति: परिशिष्ट-I WPA: अनुसूची-I रूफस-बेलिड कठफोड़वा (Rufous-Bellied Woodpecker )   रूफस-बेलिड कठफोड़वा (Dendrocopos hyperythrus) Picidae वर्ग में पक्षी की एक प्रजाति है। यह भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में हिमालय के क्षेत्रों में पाया जाता है। इसके प्राकृतिक आवास उपोष्णकटिबंधीय या उष्णकटिबंधीय आर्द्र तराई-वन तथा उपोष्णकटिबंधीय या उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्वतीय वन हैं। IUCN रेड लिस्ट स्थिति: कम चिंतनीय CITES स्थिति: मूल्यांकन नहीं किया गया WPA: अनुसूची-IV  

लुप्तप्राय हिमालयी जीवों पर वनाग्नि के कारण संकट Read More »

शहरी नियोजन

संदर्भ हाल ही में केरल में आई विनाशकारी बाढ़ और कुछ समय पहले दक्षिणी मुंबई के सिंधिया हाउस में लगी भीषण आग ने नीति निर्माताओं को एक समन्वित शहरी नियोजन की आवश्यकता पर फिर से सोचने के लिये मजबूर किया है। बात चाहे सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा 14 शहरों के प्रदूषण संबंधित किये गए सर्वेक्षण की हो या फिर विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण शहरों के बुरे तरीके से प्रभावित होने की, इनके ठोस समाधान के लिये एक शहरी नियोजन की जरूरत काफी समय से महसूस की जा रही है। इसी को देखते हुए हम लेख में शहरी नियोजन के कमजोर पक्षों पर प्रकाश डालने के साथ-साथ उसके बेहतर प्रबंधन से संबंधित तथ्यों पर भी नजर डालेंगे। शहरी नियोजन क्या है और भारत को एक व्यापक एवं एकीकृत शहरी नियोजन की आवश्यकता क्यों है? शहरी नियोजन एक प्रक्रिया है जिसके तहत स्थानीय स्तर पर नियोजन सीधे हस्तक्षेप द्वारा शहर के विकास से संबंधित विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित किया जाता है। इसकी सहायता से निवासियों की मोबिलिटी, गुणवत्तापूर्ण जीवन एवं धारणीयता जैसे उद्देश्यों को पूरा किया जाता है। शहरी नियोजन आज के इस बढ़ते शहरीकरण का एक महत्त्वपूर्ण पहलू हो गया है। हम जानते हैं कि इस समय भारत भी तीव्र नगरीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है। यू.एन. अर्बनाइज़ेशन प्रोस्पेक्टस, 2018 रिपोर्ट के अनुसार भारत की जनसंख्या का करीब 34 फीसदी हिस्सा शहरी क्षेत्रों में निवास करता है। इसमें 2011 की जनगणना की तुलना में 3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है। मेगासाइज़ अर्बन क्लस्टर की संख्या कई वर्षों से स्थिर बनी हुई है जबकि स्मॉलर अर्बन क्लस्टर की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आपको बताते चलें कि मेगासाइज अर्बन क्लस्टर उन्हें कहा जाता है जिनकी जनसंख्या 50 लाख से ऊपर होती है। नगरीकरण में हो रही इस वृद्धि के कारण शहरों की मांग-आपूर्ति अंतर में भी बढ़ोतरी हो रही है। यह अंतर आवास के अलावा जल, स्वच्छता एवं सफाई, परिवहन और संचार सेवाओं में भी दिखायी देता है। गाँवों और शहरों के बीच सुविधाओं को लेकर जो अंतर देखने में आता है उसके कारण गाँवों से शहरों की ओर प्रवसन होता है। ऐसे में जहाँ एक तरफ सवाल है कि क्या ये शहरी क्षेत्र नए निवासियों को आत्मसात करने के लिये पूरी तरह से तैयार हैं? तो वहीं दूसरी तरफ हम यह भी देखते हैं कि भारत प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित क्षेत्रों वाला देश है। भारत के ग्रामीण तथा शहरी दोनों ही इलाके इन आपदाओं के प्रति सुभेद्यता रखते हैं। लेकिन भारतीय शहर ज्यादा जनसंख्या घनत्व के कारण इन आपदाओं के प्रति अधिक सुभेद्यता रखते हैं। हर आपदा तेजी से हो रहे शहरीकरण की प्रक्रिया में हुई गलतियों को उजागर कर देती है। इन समस्याओं को देखते हुए देश के शहरों के लिये एक ठोस शहरी नियोजन की आवश्यकता है जिसमें वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण पर आधारित मास्टर प्लान की व्यवस्था की गयी हो। खराब शहरी नियोजन किस प्रकार से शहर में आपदा एवं विभिन्न गंभीर परिस्थितियों को जन्म देता है? जनसंख्या का बढ़ता दबाव शहरों के विकासात्मक कार्यों पर भी दबाव डालता है। मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिये किए गए कार्य बुनियादी पारिस्थितिकीय तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं जिनकी क्षतिपूर्ति करना एक समय-सीमा के बाद संभव नहीं हो पाता है। साथ ही शहरी नियोजन में व्याप्त कमियाँ इन आपदाओं को और गंभीर बना देती हैं। शहरी नियोजन, मास्टर प्लान या डेवलपमेंट प्लान पर आधारित होते हैं। ये प्लान भूमि उपयोग पर भी आधारित होते हैं यानी विभिन्न मानवीय गतिविधियों के आधार पर भूमि को कई वर्गों मसलन रेसिडेंशियल, कमर्शियल, ट्रांसपोर्टेशन, पब्लिक और गवर्मेंट ऑफिस इत्यादि में बाँटा जाता है। इन योजनाओं को संबंधित राज्य विधायिका से मंजूरी प्राप्त होती है जिन्हें लगभग 20-25 वर्षों की अवधि में पूरा करना होता है; लेकिन ये मास्टर प्लान फंड की कमी के कारण ठीक ढंग से लागू नहीं हो पाते। देश की वर्तमान शहरी नियोजन व्यवस्था के साथ महत्त्वपूर्ण चिंता यह है कि यह भूमि उपयोग के पुराने तरीकों पर आधारित है। हमें इससे आगे बढ़ते हुए ऐसी योजना और प्रक्रिया अपनानी होगी जो लोगों की जरूरतों के मुताबिक हो। आपको बता दें कि शहरी नियोजन और स्थानीय शासन के बीच आपसी तालमेल का न होना भी हमारी नियोजन प्रक्रिया की एक बेसिक कमी है। हालाँकि 74वें संवैधानिक संशोधन में शहरी और स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने की बात कही गयी थी ताकि वे सेल्फ-गवर्मेंट संस्थान के रूप में कार्य कर सकें। लेकिन, शहरी नियोजन के संबंध में उनकी प्रभावशीलता अभी भी सीमित है। 1985 में केंद्र सरकार मॉडल क्षेत्रीय और शहर नियोजन एवं विकास कानून लेकर आई थी। पर, ज्यादातर राज्य अपने नियोजन कानूनों में इसके प्रावधानों को शामिल करने में नाकाम रहे हैं। दूसरी ओर, भारत में मोटराइजेशन यानी मोटर-वाहनों की संख्या अपनी विस्फोटक स्थिति में है। सड़क परिवहन ,ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोतरी का बड़ा कारण बना है। दरअसल,शहरी आवागमन द्वारा पार्टिकुलेट मैटर और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे टॉक्सिक उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। ऐसे में शहरी नियोजन का कुप्रबंधन शहरी ताप द्वीप एवं प्रदूषण की मुख्य वजहों में से एक बनता जा रहा है। डब्लू.एच.ओ. और यूएन-हैबिटेट के एक अध्ययन से पता चला है कि शहरों की इमारतों और घरों के बल्बों, एयरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर और वाटर कूलर इत्यादि के इस्तेमाल से शहरी इलाकों के तापमान में 2-3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाती है। स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर गौर करें तो स्लम पुनर्वास प्राधिकरण द्वारा बनाई गई बसावटें और बहुत छोटे घर जहाँ दिन की रोशनी और हवा का संचार सुचारू रूप से नहीं होता, वहाँ टी.बी. जैसी बीमारियों का फैलाव देखने को मिलता है। यह तथ्य साबित करता है कि टी.बी. जैसी बीमारियों की वृद्धि एवं कमी में हाउसिंग की डिजाइनिंग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रदूषण के कारकों के अलावा भवनों में आग लगना एवं विभिन्न शहरी अवसंरचनाओं और बिल्डिंग्स का गिरना भी शहरी नियोजन के कुप्रबंधन को दर्शाता है। बढ़ती जनसंख्या की आधारभूत जरूरतों को पूरा करने के क्रम में भवन निर्माण संबंधी विभिन्न मानकों और नीतियों का अनुपालन सही तरीके से नहीं हो रहा है। आमतौर पर भवनों के डिज़ाइन में अग्नि सुरक्षा संबंधी प्रावधान ही नदारद रहते हैं। फायर डिपार्टमेंट के पास भी आग के खतरों

शहरी नियोजन Read More »

भिक्षावृत्ति : अपराध या विवशता

दो वक्त की रोटी के लिये किसी के आगे हाथ फैलाना अपने-आप में अपने जमीर को मारने जैसा लगता है। लेकिन ये किसी से छुपा नहीं है कि भिक्षावृत्ति के उदाहरण अक्सर सड़क किनारे,धार्मिक स्थलों के आस-पास या चौक-चौराहों पर दिख जाते हैं। एक संजीदा नागरिक के रूप में आपके मन में ये सवाल उठ सकता है कि क्या भीख मांग रहे ये लोग अपनी विवशता के कारण ऐसी हालत में हैं या फिर ये किसी साजिश के शिकार हैं। ताज्जुब की बात तो ये है कि इस संबंध में अभी तक कोई बेहतर मैकेनिज्म नहीं बन पाया है। बहरहाल हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने भिक्षावृत्ति को अपराध घोषित करने वाले कानून बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ़ बेगिंग एक्ट, 1959 [Bombay Prevention of Begging Act, 1959] की 25 धाराओं को समाप्त कर दिया है। साथ ही, भिक्षावृत्ति के अपराधीकरण को असंवैधानिक करार दिया है। हाई कोर्ट ने यह निर्णय भिखारियों के मौलिक अधिकारों और उनके आधारभूत मानवाधिकारों के संदर्भ में दायर दो जनहित याचिकाओं की सुनवाई के दौरान दिया। यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि देश में अब तक भिक्षावृत्ति के संदर्भ में कोई केंद्रीय कानून नहीं है। बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ़ बेगिंग एक्ट, 1959 को ही आधार बनाकर 20 राज्यों और 2 केंद्रशासित प्रदेशों ने अपने कानून बनाये हैं। दिल्ली भी इनमें से एक है। वहीँ दूसरा केंद्रशासित प्रदेश है दमन और दीव। इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में भिक्षावृत्ति किन-किन रूपों में देखी जाती है और इसके पीछे निहित कारण क्या हैं? बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ़ बेगिंग एक्ट के प्रमुख प्रावधान क्या हैं? ये प्रावधान किस प्रकार संविधान में दर्शाए गये मौलिक अधिकारों और आधारभूत मानवाधिकारों से असंगत हैं? साथ ही हम इस बात की चर्चा करेंगे कि भिक्षावृत्ति की समस्या से निपटने के लिये किस प्रकार के उपाय किये जा सकते हैं? भारत में भिक्षावृत्ति किन रूपों में विद्यमान है और इसके पीछे के कारण क्या हैं ? भिक्षावृत्ति का सबसे साधारण classification ऐच्छिक भिक्षावृत्ति और अनैच्छिक भिक्षावृत्ति के रूप में किया जा सकता है। बहुत से ऐसे लोग हैं जो आलस्य, काम करने की कमजोर इच्छा शक्ति आदि के कारण भिक्षावृत्ति अपनाते हैं। भारत में कुछ जनजातीय समुदाय भी अपनी आजीविका के लिये परम्परा के तौर पर भिक्षावृत्ति को अपनाते हैं। लेकिन यहाँ पर गौर करने वाली बात ये है कि भीख मांगने वाले सभी लोग इसे ऐच्छिक रूप से नहीं अपनाते। दरअसल, गरीबी, भुखमरी तथा आय की असमानताओं के चलते देश में एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे भोजन, कपड़ा और आवास जैसी आधारभूत सुविधाएँ भी प्राप्त नहीं हो पातीं। यह वर्ग कई बार मजबूर होकर भीख मांगने का विकल्प अपना लेता है। भारत में आय की असमानता और भुखमरी की कहानी तो ग्लोबल लेवल की कुछ रिपोर्टों से ही जाहिर हो जाती है। दिसम्बर, 2017 में प्रकाशित वर्ल्ड इनइक्वैलिटी रिपोर्ट [World Inequality Report] के अनुसार भारत के 10% लोगों के पास देश की आय का 56% हिस्सा है। वहीं International Food Policy Research Institute नामक एक संगठन द्वारा 2017 में जारी Global Hunger Index में 119 देशों की सूची में भारत को 100वाँ स्थान मिला है। साथ ही भारत को भुखमरी के मामले में गंभीर स्थिति वाले देशों में रखा गया है। कई बार गरीबी से पीड़ित ऐसे लोगों की मजबूरी का फ़ायदा कुछ गिरोह भी उठाते हैं। ऐसे गिरोह संगठित रूप से भिक्षावृत्ति के रैकेट चलाते हैं। ये गिरोह गरीब व्यक्तियों को लालच देकर, डरा-धमकाकर, नशीले ड्रग्स देकर, तथा मानव तस्करी के द्वारा लाए गए लोगों को शारीरिक रूप से अपंग बनाकर भीख मांगने पर मजबूर करते हैं। बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ़ बेगिंग एक्ट, 1959 की कुछ धाराओं में फेरबदल कर दिल्ली हाई कोर्ट ने ऐसे गरीब लोगों के जीवन जीने के अधिकार की रक्षा का एक सार्थक प्रयास किया है। बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ़ बेगिंग एक्ट के प्रमुख प्रावधान इस अधिनियम की सबसे बड़ी बात यह है कि यह भिक्षावृत्ति को अपराध घोषित करता है। साथ ही पुलिस प्रशासन को शक्ति देता है कि वह ऐसे भीख मांगने वाले व्यक्ति को पकड़कर किसी पंजीकृत संस्था में भेज सके। इस अधिनियम में भिक्षावृत्ति की परिभाषा में ऐसे किसी भी व्यक्ति को शामिल किया गया है जो गाना गाकर, नृत्य करके, भविष्य बताकर, कोई सामान देकर या इसके बिना भीख मांगता है या कोई चोट, घाव आदि दिखाकर, बिमारी बताकर भीख मांगता है। इसके अलावा जीविका का कोई दृश्य साधन न होने और सार्वजनिक स्थान पर इधर-उधर भीख मांगने की मंशा से घूमना भी भिक्षावृत्ति में शामिल है। इस कानून में भिक्षावृत्ति करते हुए पकड़े जाने पर पहली बार में तीन साल तक के लिये और दूसरी बार में दस साल तक के लिये व्यक्ति को सजा के तौर पर पंजीकृत संस्था में भेजे जाने का नियम है। इसके साथ ही पकड़े गए व्यक्ति के आश्रितों को भी पंजीकृत संस्था में भेजा जा सकता है। यहाँ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इन संस्थाओं को भी कई प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे-संस्था में लाए गए व्यक्ति को सजा देना, कार्य करवाना आदि। इन नियमों का पालन न करने पर व्यक्ति को जेल भी भेजा जा सकता है। ये सभी प्रावधान महाराष्ट्र में सार्वजनिक स्थानों पर भीख मांग रहे और कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों से पीड़ित भिखारियों को एक निश्चित स्थान पर ले जाकर उन्हें इलाज व अन्य सुविधाएँ देने के लिये लाये गये थे। लेकिन शीघ्र ही यह कानून गरीबी, अपंगता, गंभीर बीमारियों जैसी किसी मजबूरी के कारण भिक्षावृत्ति अपनाने वालों के खिलाफ हथियार बन गया। प्रशासन ने इसका प्रयोग सार्वजनिक स्थानों से भिखारियों को हटाने के लिये करना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिये 2010 में कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के दौरान दिल्ली से भिखारियों को बाहर निकालने के लिये इसका बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। दंडात्मक प्रावधानों के तहत भिखारियों को पकड़ा तो जाता है लेकिन उनके पुनर्वास के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते। मौजूदा कानून में क्या समस्याएँ हैं तथा यह किस प्रकार मौलिक अधिकारों और मानवीय मूल्यों से असंगत है? पहली समस्या भिक्षावृत्ति की परिभाषा को लेकर है। गायन, नृत्य, भविष्य बताकर आजीविका कमाना कुछ समुदायों के लिये व्यवसाय है। यह मुख्य धारा के व्यवसायों से मेल नहीं खाता, सिर्फ इसलिये ऐसे लोगों

भिक्षावृत्ति : अपराध या विवशता Read More »

एक देश : एक चुनाव

लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के मसले पर लंबे समय से बहस चल रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस विचार का समर्थन कर इसे आगे बढ़ाया है। आपको बता दें कि इस मसले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। अभी हाल ही में विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराये जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिये तीन दिवसीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था। इस कॉन्फ्रेंस में कुछ राजनीतिक दलों ने इस विचार से सहमति जताई, जबकि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। उनका कहना है कि यह विचार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है। जाहिर है कि जब तक इस विचार पर आम राय नहीं बनती तब तक इसे धरातल पर उतारना संभव नहीं होगा। इस लेख के माध्यम से हम कई सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे, जैसे- एक देश एक चुनाव की जरूरत क्यों है? इसकी पृष्ठभूमि क्या है? देश में इस प्रक्रिया को फिर से लाने के पक्ष में क्या तर्क हैं? इसकी सीमाएँ क्या हैं? इसमें आगे की राह क्या है? तो आइये, एक-एक कर इन सभी सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं। क्यों है जरूरत एक देश एक चुनाव की किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। स्वस्थ एवं निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला होते हैं। भारत जैसे विशाल देश में निर्बाध रूप से निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है। अगर हम देश में होने चुनावों पर नजर डालें तो पाते हैं कि हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है। इस सबसे बचने के लिये नीति निर्माताओं ने लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का विचार बनाया। गौरतलब है कि देश में इनके अलावा पंचायत और नगरपालिकाओं के चुनाव भी होते हैं किन्तु एक देश एक चुनाव में इन्हें शामिल नहीं किया जाता। आपको बता दें कि एक देश एक चुनाव लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने एक वैचारिक उपक्रम है। यह देश के लिये कितना सही होगा और कितना गलत, इस पर कभी खत्म न होने वाली बहस की जा सकती है। लेकिन इस विचार को धरातल पर लाने के लिये इसकी विशेषताओं की जानकारी होना जरूरी है। इसकी पृष्ठभूमि क्या है एक देश एक चुनाव कोई अनूठा प्रयोग नहीं है, क्योंकि 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है, जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएँ विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई। आपको बता दें कि 1971 में लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। जाहिर है जब इस प्रकार चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं तो अब करवाने में क्या समस्या है। एक तरफ जहाँ कुछ जानकारों का मानना है कि अब देश की जनसंख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है, लिहाजा एक साथ चुनाव करा पाना संभव नहीं है, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ विश्लेषक कहते हैं कि अगर देश की जनसंख्या बढ़ी है तो तकनीक और अन्य संसाधनों का भी विकास हुआ है। इसलिए एक देश एक चुनाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। किन्तु इन सब से इसकी सार्थकता सिद्ध नहीं होती, इसके लिए हमें इसके पक्ष और विपक्ष में दिये गए तर्कों का विश्लेषण करना होगा। एक देश एक चुनाव के समर्थन में दिये जाने वाले तर्क एक देश एक चुनाव के पक्ष में कहा जाता है कि यह विकासोन्मुखी विचार है। जाहिर है लगातार चुनावों के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है| इसकी वजह से सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विभिन्न योजनाओं को लागू करने समस्या आती है। इसके कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं। आपको बता दें कि आदर्श आचार संहिता या मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट चुनावों की निष्पक्षता बरकरार रखने के लिये बनाया गया है। इसके तहत निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव अधिसूचना जारी करने के बाद सत्ताधारी दल के द्वारा किसी परियोजना की घोषणा, नई स्कीमों की शुरुआत या वित्तीय मंजूरी और नियुक्ति प्रक्रिया की मनाही रहती है। इसके पीछे निहित उद्देश्य यह है कि सत्ताधारी दल को चुनाव में अतिरिक्त लाभ न मिल सके। इसलिए यदि देश में एक ही बार में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव कराया जाए तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी, और इसके बाद विकास कार्यों को निर्बाध पूरा किया जा सकेगा। एक देश एक चुनाव के पक्ष में दूसरा तर्क यह है कि इससे बार-बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी। गौरतलब है कि बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है। चुनाव पर होने वाले खर्च में लगातार हो रही वृद्धि इस बात का सबूत है कि यह देश की आर्थिक सेहत के लिये ठीक नहीं है। एक देश एक चुनाव के पक्ष में दिये जाने वाले तीसरे तर्क में कहा जाता है कि इससे काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। यह किसी से छिपा नहीं है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि देश में प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है, किन्तु राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है। कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि लगातार चुनाव होते रहने से राजनेताओं और पार्टियों को सामजिक समरसता भंग करने का मौका मिल जाता है जाता है,जिसकी वजह से अनावश्यक तनाव की परिस्थितियां बन जाती हैं| एक साथ चुनाव कराये जाने से इस प्रकार की समस्याओं से निजात पाई जा  सकती है। इसके पक्ष में चौथा तर्क यह है कि एक साथ चुनाव कराने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की

एक देश : एक चुनाव Read More »

ईरान न्यूक्लियर डील से वैश्विक संकट

हाल ही में पूरी दुनिया तब हैरान हो गयी जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने वर्ष 2015 में ईरान के साथ हुए परमाणु डील से अमेरिका के हट जाने का ऐलान किया। वर्ष 2015 में, लंबे समय की कूटनीतिक पहल के बाद जब ईरान के साथ अमेरिका सहित अन्य पाँच देशों का परमाणु करार हुआ था, तब पूरी दुनिया ने राहत की साँस ली थी। तब इस बात की उम्मीद की गयी थी कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से पैदा हुए अंतर्राष्ट्रीय तनाव से उबर कर पूरा विश्व समुदाय फिर से ईरान के साथ अपने आर्थिक संबंध को बेहतर कर सकेगा। लिहाज़ा, ऐसा ही हुआ। परिस्थितियाँ सामान्य हुईं और पूरा विश्व एक बार फिर से विकास के मार्ग पर अग्रसर हो गया। लेकिन, डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा इस परमाणु करार को तोड़ने से पुनः एक अंतर्राष्ट्रीय संकट की आशंका पैदा हो गयी है। इसी कारण, ईरान के साथ यह परमाणु डील फिर से चर्चा का विषय बनी हुई है। इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि ईरान परमाणु डील क्या है? परमाणु अप्रसार संधि क्या है? इस परमाणु समझौते से बाहर होने के पीछे अमेरिका की क्या रणनीति है? हम जानेंगे कि परमाणु डील के कमज़ोर पड़ने से भारत, मध्य पूर्व एशिया और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर क्या प्रभाव पड़ेगा और इस पूरे घटनाक्रम में भारत की क्या रणनीति होनी चाहिये। ईरान परमाणु डील क्या है? आपको बता दें कि 1950 के दशक में ईरान ने शांतिपूर्ण तरीके से परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की थी। लेकिन बात तब बिगड़ गयी जब वर्ष 2002 में यह बात सामने आई कि NPT यानी Non-Proliferation Treaty या परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने के बावजूद ईरान अपने नाभिकीय हथियारों को तेज़ी से इकठ्ठा कर रहा है। इस कारण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर चिंता बढ़ने लगी। अमेरिका समेत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के सदस्य देशों को ईरान से एक प्रकार का खतरा महसूस होने लगा। इसके पश्चात, वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने ईरान पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए। साथ ही, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने भी ईरान पर कई प्रकार के आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये। लिहाज़ा, दुनिया के देशों के साथ ईरान का व्यापार बंद होने लगा और ईरान की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी। आख़िरकार, जुलाई 2015 में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में सुरक्षा परिषद् के सभी सदस्य देश, मसलन- अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन तथा जर्मनी और EUROPEAN UNION ने ईरान के साथ एक परमाणु समझौता किया। इसमें सुरक्षा परिषद् के पाँचों सदस्य और जर्मनी को सम्मिलित रूप से FIVE+ONE COUNTRY कहा जाता है। इस समझौते में ईरान के सामने कई शर्त रखी गई। पहली शर्त थी कि, ईरान को अपने संवर्द्धित यानी ENRICHED यूरेनियम के भण्डार को कम करना होगा। इसके तहत, ईरान को उच्च संवर्द्धित यूरेनियम का 98 फीसद हिस्सा नष्ट करना था या देश के बाहर भेजना था ताकि उसके परमाणु कार्यक्रम पर विराम लग सके। दूसरी शर्त के मुताबिक आगे से यूरेनियम को 3.67 फीसद तक ही संवर्द्धित करने की इजाज़त दी गई, ताकि उसका इस्तेमाल बिजली उत्पादनों या अन्य ज़रूरतों में ही किया जा सके। आपको बता दें कि नाभिकीय हथियार बनाने के लिए यूरेनियम का संवर्द्धन 90 फीसदी से ज्यादा यानी उच्च संवर्द्धन जरूरी होता है, अन्यथा उससे नाभिकीय हथियार नहीं बनाये जा सकते। तीसरी शर्त यह थी कि ईरान कुल सेंट्रीफ्यूज का दो तिहाई संख्या कम करेगा। इसके तहत, लगभग 6 हज़ार सेंट्रीफ्यूज रखने पर सहमति बनी जबकि डील से पहले ईरान के पास कुल 19 हज़ार सेंट्रीफ्यूज थे। सेंट्रीफ्यूज एक प्रकार की मशीन होती है जिसकी सहायता से यूरेनियम का संवर्द्धन किया जाता है। नाभिकीय हथियार के निर्माण के लिये उच्च संवर्द्धित यूरेनियम की काफी मात्रा में जरूरत होती है और 5-6 हज़ार सेंट्रीफ्यूज से हथियार बनाने के लिये आवश्यक यूरेनियम के संवर्द्धन में काफी लंबा समय लगता है। ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकतर देश परमाणु कार्यक्रम चला रहे हैं तब केवल ईरान को रोकना तर्कसंगत नहीं होता। लिहाज़ा इन सभी शर्तों का उद्देश्य ईरान को नाभिकीय हथियार बनाने से पूरी तरह रोकना नहीं था बल्कि, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को विलंब करना था ताकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को किसी भी तरह के संकट से जूझने के लिये समय मिल सके। दरअसल जब कोई देश शांतिपूर्ण तरीके से परमाणु कार्यक्रम चला रहा होता है तो विश्व समुदाय को कोई आपत्ति नहीं होती है और ईरान भी अपने परमाणु कार्यक्रम को शांतिपूर्ण ही बताता रहा, लेकिन विश्व के शक्तिशाली देशों के मन में उपजे आशंकाओं से इस परमाणु डील की परिस्थिति पैदा हुई। चौथी महत्त्वपूर्ण शर्त थी कि INTERNATIONAL ATOMIC ENERGY AGENCY यानी IAEA ईरान के उन स्थलों का निरीक्षण कभी भी कर सकता है जहाँ ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम चलाता रहा है। इस समझौते के तहत ईरान पर हथियार ख़रीदने पर पाँच साल और मिसाइल पर आठ साल तक का प्रतिबंध आरोपित किया गया। यह डील JOINT COMPREHENSIVE PLAN OF ACTION यानी JCPOA या साझी व्यापक कार्ययोजना के नाम से जानी जाती है। बहरहाल, ईरान ने इस समझौते की सभी शर्तों को मान लिया जिसके बदले में ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेन-देन वगैरह में ढील दी गई। एनपीटी यानी अप्रसार संधि क्या है? आपको बता दें की एनपीटी या Non-Proliferation Treaty एक प्रकार की संधि है जो नाभिकीय हथियारों के प्रसार को सीमित करती है। इसे परमाणु अप्रसार संधि भी कहते हैं। इस संधि पर हस्ताक्षर की शुरुआत वर्ष 1968 में हुई, जबकि 1970 में यह प्रभाव में आया। इसका मकसद दुनिया भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर पाबंदी लगाना है। इसके मुताबिक कोई भी देश भारी मात्रा में नाभिकीय हथियार सैन्य उद्देश्यों से इकठ्ठा नहीं कर सकता है। हाँ, शांतिपूर्ण तरीके से ऊर्जा ज़रूरतों के लिये परमाणु ऊर्जा के संवर्द्धन की इजाज़त होती है। लेकिन, ऐसा करने के लिये भी INTERNATIONAL ATOMIC ENERGY AGENCY यानी IAEA की निगरानी पर सहमति बनानी पड़ती है। आपको यह भी बता दें कि मौजूदा वक़्त में, एनपीटी के 190 सदस्य देश हैं और भारत ने अभी तक इस पर अपनी सहमति नहीं दी है। ईरान परमाणु समझौता से बाहर होने के पीछे अमेरिका के क्या तर्क हैं? गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का यह फैसला हैरान करने वाला नहीं होना चाहिये। अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप

ईरान न्यूक्लियर डील से वैश्विक संकट Read More »

Translate »
Scroll to Top