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वैदिक से उत्तरवैदिक काल में धार्मिक विश्वासों एवं प्रथाओं में क्या-क्या परिवर्तन हुए। विवेचना कीजिये।

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उत्तर :

 

समय के साथ किसी भी समाज के विश्वासों एवं प्रथाओं में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। उत्तरवैदिक काल में भी वैदिक काल से चल रहे धार्मिक विश्वासों एवं प्रथाओं में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

  • यज्ञ उत्तरवैदिक समाज का मूल था। यज्ञ के साथ-साथ अनेकानेक मंत्र विधियाँ एवं अनुष्ठान प्रचलित हुए।
  • इस काल में देवता इंद्र अब उतने प्रमुख नहीं रहे तथा देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला। ऋग्वैदिक काल के कुछ अन्य गौण देवता भी प्रमुख हो गए, जैसे- उत्तरवैदिक काल में पशुओं का देवता महत्त्वपूर्ण हो गया। विष्णु को वे लोग अपना पालक और रक्षक समझने लगे।
  • उत्तरवैदिक समाज में देवताओं के रूप में कुछ वस्तुओं की पूजा प्रचलित हुई तथा इस काल में मूर्तिपूजा आरंभ होने का संकेत मिलने लगता है।
  • चूँकि इस काल में समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विभक्त हो गया था, इसलिये कुछ वर्णों के अपने अलग देवता हो गए, जैसे पूषन् (पशुओं की रक्षा करने वाला) शूद्रों का देवता हो गया।
  • देवताओं की आराधना के जो भौतिक उद्देश्य पूर्व में थे, वे इस काल में भी रहे; लेकिन आराधना की रीति में महत्त्वपूर्ण अंतर आ गया। स्तुतिपाठ अब देवताओं को प्रसन्न करने की प्रमुख रीति नहीं रहे, प्रत्युत यज्ञ करना अब कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया।
  • इस काल में यज्ञ के सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप प्रचलित हुए। सार्वजनिक यज्ञ राजा अपनी सारी प्रजा के साथ करता था एवं निजी यज्ञ अलग-अलग व्यक्ति अपने-अपने घर में करते थे। यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशुबलि दी जाती थी, जिससे खासतौर से पशुधन का ह्रास होता गया।
  • यज्ञ कर्म में बड़ी सतर्कता एवं शुद्धता से मंत्रोच्चारण किया जाता था। इन सारे मंत्रों और यज्ञों का सृजन, अंगीकरण और विस्तारण पुरोहितों ने किया। ब्राह्मण धार्मिक ज्ञान-विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे।
  • यज्ञ की दक्षिणा में सामान्यत: गायों और दासियों के साथ-साथ सोना, कपड़े और घोड़े भी दिये जाने लगे। किंतु यज्ञ की दक्षिणा में भूमि का दिया जाना उत्तरवैदिक काल में प्रचलित नहीं हुआ था।
  • वैदिक काल के अंतिम दौर में पुरोहितों के प्रभुत्व के विरुद्ध तथा यज्ञों और कर्मकांडों के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया शुरू हुई। 600 ई. पूर्व के आसपास उपनिषदों का संकलन हुआ, जिनमें कर्मकांडों की निंदा की गई एवं यथार्थ ज्ञान तथा विश्वास को महत्त्व दिया गया।
  • उपनिषदों तथा कई राजाओं की प्रेरणा से आत्मा और परमात्मा (ब्रह्मा) के बीच संबंध की भावना का प्रसार हुआ। जिसके कारण प्रजा में राजा के प्रति भक्ति भावना जागृत हुई।

इस प्रकार वर्ण व्यवस्था की पूर्णतया स्थापना, ब्राह्मण वर्ग के प्रभुत्व एवं उपनिषदों के संकलन आदि कारणों से उत्तरवैदिक काल में धार्मिक विश्वासों एवं प्रथाओं में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

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