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रोशनी एक्टः विभिन्न पहलू

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ब्रिटिश काल में औपनिवेशिक शासन की अन्यायपूर्ण नीतियों के कारण भारत में भू-संपत्तियों में अत्यधिक असमानता थी। इस वजह से जमींदारों एवं संपन्न वर्ग के पास काफी ज़मीने थी तथा ज़्यादातर कृषक भूमिहीन थे। स्वतंत्रता उपरांत भारत सरकार के मुख्य उद्देश्यों में से एक था ‘देश में समान भू-वितरण’ का कार्य। वर्ष 1950-60 के दशक में विभिन्न राज्यों में भू-स्वामित्व कानून अधिनियमित किये गए जिन्हें केंद्र सरकार के निर्देश पर वर्ष 1972 में संशोधित किया गया।

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर, वर्ष 1950 में लैंड रिफॉर्म लॉ लाने वाला पहला राज्य था। वर्ष 2001 में फारुक अब्दुल्ला की सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि एक्ट, 2001 लाया गया जिसे बाद में रोशनी एक्ट नाम दिया गया। इस कानून को लाने का उद्देश्य राज्य की भूमि पर हुए अनाधिकृत कब्ज़े को नियमित करना था। इस कानून द्वारा कई दशकों से जम्मू-कश्मीर में सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण करने वालों को मालिकाना हक दिया जाना था। इसके लिये वर्ष 1990 को कट ऑफ वर्ष निर्धारित किया गया। इस अधिनियम में दो बार संशोधन किये गए। उस दौरान कट ऑफ मूल्य पहले 2004 और उसके बाद 2007 के अनुसार कर दिया गया। रोशनी एक्ट के तहत ज़मीन आवंटन द्वारा प्राप्त राशि को विद्युत ढाँचे के सुधार हेतु उपयोग में लाना था परंतु ज़मीन का आवंटन सही तरीके से नहीं किया गया। इसके तहत लाखों हेक्टेयर सरकारी ज़मीन लोगों को कम कीमत में ही वितरित कर दी गई। केवल 15-58 फीसदी ज़मीन को ही मालिकाना हक हेतु मंज़ूरी प्राप्त हुई। रोशनी एक्ट के तहत तत्कालीन राज्य सरकार का लक्ष्य 20 लाख कनाल सरकारी ज़मीन को अवैध कब्ज़ेदारों के हाथों में सौंपना था, जिसके एवज में सरकार बाज़ार भाव से पैसे लेकर 25,000 करोड़ रुपए की कमाई करती एवं उसका उपयोग राज्य में गंभीर विद्युत कमी की पूर्ति हेतु करती।

रोशनी एक्ट लागू होने से पहले दस लाख कनाल सरकारी ज़मीन लोगों के कब्ज़े में थी। एक्ट के प्रावधान के अनुसार, 1990 से पहले सरकारी ज़मीन पर जिसका कब्ज़ा था वह ही इसका लाभ उठा सकता था परंतु संशोधन द्वारा 1990 के प्रावधान को हटा दिया गया। ज़मीन का मार्केट रेट एवं सरकार को प्राप्त पैसे के मध्य अंतर पाया गया। महँगी ज़मीनों के सरकारी रेट को कम करवाकर कम कीमत पर ज़मीनें खरीदी गईं जिससे सरकार को घाटा हुआ एवं घोटाला करने वालों को अत्यधिक फायदा।

पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने 28 नवंबर, 2013 को इस योजना को रद करते हुए इसका कारण निम्न राजस्व प्राप्त होना एवं उद्देश्यों में नाकाम होना बताया। वर्ष 2014 में सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार, 2007 से 2013 के बीच ज़मीन ट्रांसफर करने संबंधी मामले में अनियमितता पाई गई थी। 25 हज़ार करोड़ के बजाय सिर्फ 76 करोड़ रुपए ही जमा किये गए थे। उच्च न्यायालय में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की गई थी एवं हाईकोर्ट ने प्रथम द्रष्टया ‘बड़े सरकारी अधिकारियों’ को सार्वजनिक ज़मीनों को गैर-कानूनी तरीके से निजी मालिकों के हाथों अतिक्रमण होने देने का दोषी माना है। हाइकोर्ट ने इस एक्ट को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया एवं इसके तहत बाँटी गई ज़मीनों का नामांतरण रद करने का आदेश भी दिया। साथ ही लाभार्थियों के नाम सार्वजनिक करने की बात भी कही गई। इसे उच्च न्यायालय ने आरंभ में शून्य करार दिया है।

हालाँकि हाल ही में एक यू-टर्न के तहत जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने 8 अक्तूबर को पारित उच्च न्यायालय के फैसले में संशोधन की मांग की है, जो वर्ष 2001 के रोशनी अधिनियम को केंद्रशासित प्रदेश में शून्य और अप्रभावी घोषित करता है तथा सरकारी ज़मीन पर रहने वाले लोगों के स्वामित्व अधिकारों को समाप्त करने का निर्देश देता है।

आदेश की समीक्षा की आवश्यकता क्यों?

याचिका में दिये गए तर्क के अनुसार, इस आदेश द्वारा बड़ी संख्या में आम लोगों के अनायास ही पीड़ित होने की आशंका जताई जा रही है। इसमें भूमिहीन किसानों के साथ वे व्यक्ति भी शामिल हैं जो छोटी भूमि पर रहते हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे उन अमीरों एवं अवैध रूप से भूमि पर कब्ज़ा करने वालों में शामिल हैं जिन्होंने राज्य की भूमि पर अब तक के अधिनियम के प्रावधानों के माध्यम से स्वामित्व बनाया है।

क्या किये जाने की आवश्यकता है?

दो वर्गों के लोगों के मध्य अंतर स्थापित करनाः व्यक्तिगत उपयोग के आवास वाले गृहधारक या भूमिहीन कृषक के मध्य अंतर स्थापित किये जाने की आवश्यकता है।

सीबीआई जाँच को कानूनी और नीति ढाँचे के डिज़ाइन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

देखा जाए तो वर्तमान में भी भूमि सुधार राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चिंता का विषय है। कृषिगत सुधार और कृषि विकास हेतु व्यापक भूमि सुधार नीति एक अनिवार्य शर्त हैं लेकिन इस संबंध में बहुत कुछ किया जाना शेष है। भारत में भूमि आज भी संपत्ति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। छोटी जोत भी किसान परिवार के लिये रोज़गार और आय की दृष्टि से आर्थिक रूप से व्यवहार्य हो सकती है। अतः भूमि के संबंध में कोई भी अंतिम निर्णय लेने से पहले सभी आवश्यक बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक है। साथ ही बिचौलियों का उन्मूलन, काश्तकारी में सुधार, कृषि योग्य अतिरिक्त भूमि का वितरण, जोतों की चकबंदी और भू-अभिलेखों को अद्यतन करने संबंधी उपायों पर शीघ्र ध्यान देने की ज़रूरत है।

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