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भील प्रदेश की मांग

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चर्चा में क्यों?

हाल ही में राजस्थान और पड़ोसी राज्यों में एक अलग भील राज्य (“भील प्रदेश”) की मांग को बल मिला है।

भील कौन हैं और उनकी क्या मांगें हैं?

  • परिचय:
    • भीलों को भारत की सबसे प्राचीन जनजातियों में से एक माना जाता है और उन्हें पश्चिम भारत की द्रविड़ जनजाति के रूप में पहचाना जाता है, जो ऑस्ट्रेलॉयड जनजाति समूह से संबंधित है।
      • ये मुंडा और भारत की एक अन्य वन्य जनजाति का मिश्रण हैं जो द्रविड़ मूल की भाषा (भीली) बोलते हैं।
      • राजस्थान, गुजरात, मालवा, मध्य प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों पर कभी उनका शासन हुआ करता था।
      • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में 1.7 करोड़ भील हैं।
        • इनकी सर्वाधिक संख्या (लगभग 60 लाख) मध्य प्रदेश में है, इसके बाद गुजरात में 42 लाख, राजस्थान में 41 लाख तथा महाराष्ट्र में 26 लाख है।
      • भील हिंदू धर्म से संबंधित हैं। भगवान शिव और दुर्गा की पूजा के अलावा वे वन देवताओं की भी पूजा करते हैं।

 

  • भील प्रदेश की मांग:
    • भील प्रदेश की मांग वर्ष 1913 में शुरू हुई थी, जब एक जनजातीय कार्यकर्त्ता और समाज सुधारक गोविंद गिरी बंजारा ने मानगढ़ हिल पर एक जनसभा के दौरान पहली बार एक अलग भील राज्य की मांग की थी।
      • इसके बाद एक दुखद नरसंहार हुआ जिसमें ब्रिटिश सेना ने करीब 1,500 जनजातीय लोगो की हत्या कर दी थी।
      • दशकों से विभिन्न जनजातीय नेताओं (जिनमें राजनीतिक हस्तियाँ भी शामिल हैं) ने समय-समय पर इस मांग को फिर से उठाया है।
      • प्रस्तावित भील प्रदेश में राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र सहित चार समीपवर्ती राज्यों के 49 ज़िले शामिल होंगे। इसमें राजस्थान के 12 ज़िले शामिल होंगे।
  • मांग के कारण:
    • सांस्कृतिक और भाषाई एकरूपता: भील समुदाय की भाषा भीली है और चारों राज्यों में सांस्कृतिक प्रथाएँ एक जैसी हैं। समर्थकों का तर्क है कि एक अलग राज्य उनकी सांस्कृतिक विरासत को बेहतर तरीके से संरक्षित कर सकेगा और बढ़ावा देगा।
      • फज़ल अली आयोग ने भी भाषाई और सांस्कृतिक एकरूपता को नए राज्यों के गठन के कारकों में से एक माना था।
    • भौगोलिक दृष्टिकोण: प्रस्तावित भील प्रदेश में इन चार राज्यों के 49 ज़िले शामिल होंगे। इस क्षेत्र के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध वर्तमान राज्य की सीमाओं से परे हैं।
    • राजनीतिक रूप से हाशिये पर होना: जनजातीय नेताओं का दावा है कि मौजूदा राजनीतिक संरचनाएँ भील समुदाय की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पर्याप्त रूप से पूरा करने में विफल रही हैं।
      • पृथक राज्य को अधिक केंद्रित शासन और विकास सुनिश्चित करने के समाधान के रूप में देखा जा रहा है।
    • विकासात्मक फोकस: समर्थकों का मानना ​​है कि पृथक राज्य से विकास नीतियों को अधिक अनुकूल बनाया जा सकेगा जिससे जनजातीय कल्याण के लिये संसाधनों का बेहतर उपयोग संभव होगा।
      • पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 जैसे कानूनों की ऐतिहासिक उपेक्षा और धीमा/मंद क्रियान्वयन, अधिक स्थानीयकृत शासन की आवश्यकता पर बल देता है।
  • मांग की आलोचना:
    • आलोचकों का तर्क है कि जाति या समुदाय के आधार पर राज्य के गठन से और अधिक विखंडन और अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है।
      • फज़ल अली आयोग का मानना ​​था कि देश की राजनीतिक इकाइयों के पुनर्निर्धारण में भारत की एकता को प्राथमिक पहलू माना जाना चाहिये।
    • इसके अलावा स्थापित राजनीतिक दलों की ओर से भी प्रतिरोध है, जिनके लिये यथास्थिति बनाए रखना एक जटिल मुद्दा है।
    • विरोधियों का तर्क है कि जनजातीय पहचान के आधार पर राज्य के गठन से सामाजिक विभाजन बढ़ सकता है।

अलग राज्य की मांग करने वाले अन्य क्षेत्र कौन से हैं?

  • विदर्भ: इसमें पूर्वी महाराष्ट्र के अमरावती और नागपुर संभाग शामिल हैं। राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के तहत नागपुर को राजधानी बनाकर विदर्भ राज्य के गठन की सिफारिश की गई थी।
    • हालाँकि, महाराष्ट्र राज्य में शामिल होने के बाद विदर्भ के लोगों में उपेक्षा के भय को कम करने के लिये नागपुर को दूसरी राजधानी के रूप में नामित किया गया था। 
    • लगातार राज्य सरकारों की उपेक्षा के कारण इस क्षेत्र का पिछड़ापन, एक अलग राज्य के रूप में विदर्भ की मांग के आधार के रूप में उचित ठहराया जाता है।
  • बोडोलैंड: बोडो उत्तरी असम में सबसे बड़ा जातीय और भाषाई समुदाय है। अलग बोडोलैंड राज्य के गठन के लिये आंदोलन के परिणामस्वरूप वर्ष 2003 में भारत सरकार, असम राज्य सरकार और बोडो लिबरेशन टाइगर्स फोर्स के बीच समझौता हुआ।
    • इस समझौते के अनुसार बोडो लोगों को बोडोलैंड का दर्जा दिया गया।
  • इसके साथ ही अलग राज्यों की मांग गोरखालैंड, कुकीलैंड और मिथिला आदि सहित अन्य क्षेत्रों से भी उठती रही है।

 

नवीन राज्यों के गठन के कारण क्या मुद्दे उत्पन्न हो रहे हैं?

  • विभिन्न राज्यों के कारण प्रमुख समुदाय/जाति/जनजाति का अपनी सत्ता संरचनाओं पर आधिपत्य हो सकता है।
  • इससे उप-क्षेत्रों के बीच अंतर-क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न हो सकती है।
  • नये राज्यों के गठन से कुछ नकारात्मक राजनीतिक परिणाम भी सामने आ सकते हैं, जैसे विधायकों का एक छोटा समूह अपनी इच्छानुसार सरकार बना सकता है या विघटन कर सकता है।
  • इससे अंतर-राज्यीय जल, विद्युत और सीमा विवाद बढ़ने की भी संभावना है। उदाहरण के लिये, दिल्ली और हरियाणा के बीच जल बंटवारे को लेकर विवाद का होना।
  • राज्यों के विभाजन के क्रम में नई राजधानियों के गठन और बड़ी संख्या में राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों तथा प्रशासकों को बनाए रखने के लिये भारी धनराशि की आवश्यकता होगी, जैसा कि आंध्र प्रदेश व तेलंगाना के विभाजन के मामले में भी हुआ।
  • छोटे राज्यों के गठन के बाद केवल पुरानी राजधानी/प्रशासनिक केंद्र से नई राजधानी में सत्ता का हस्तांतरण होता है और इससे ग्राम पंचायत, ज़िला कलेक्टर आदि जैसी मौजूदा संस्थाओं के साथ पिछड़े क्षेत्रों का विकास एवं सशक्तीकरण होना सुनिश्चित नहीं होता है।

आगे की राह:

  • क्षेत्रवाद की चुनौतियों से निपटने के लिये राष्ट्रीय एकता परिषद को सुदृढ़ किया जा सकता है।
    • मौजूदा कानूनों और नीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करने तथा क्षेत्रीय चिंताओं के समाधान के लिये आवश्यक संशोधनों का प्रस्ताव करने हेतु एक उच्चस्तरीय आयोग का भी गठन किया जा सकता है।
  • 73वें और 74वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज और शहरी स्थानीय निकायों को मज़बूत आधार प्रदान किया। क्षमता निर्माण, वित्तीय सशक्तीकरण और संवैधानिक सुरक्षा उपायों के माध्यम से इन संस्थाओं को मज़बूत करना अधिक प्रभावी हो सकता है।
    • वित्त आयोग की सिफारिशों को न्यायसंगत वितरण के लिये बेंचमार्क के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, प्रदर्शन-आधारित बजट जैसे कुशल संसाधन उपयोग के तंत्र को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
  • तेलंगाना के गठन के बाद उसे प्रदान किये गए विशेष पैकेज के समान तथा विशिष्ट क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप एक विशेष पैकेज तैयार किया जा सकता है।
    • प्रति व्यक्ति आय, बुनियादी ढाँचा सूचकांक और मानव विकास संकेतक जैसे आर्थिक मापदंडों का उपयोग, योग्य क्षेत्रों की पहचान करने के लिये किया जा सकता है।
  • नीति आयोग का आकांक्षी ज़िला कार्यक्रम पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर केंद्रित है। राज्य का दर्जा मांगने वाले क्षेत्रों के लिये भी इसी तरह के कार्यक्रम शुरू किये जा सकते हैं।
    • अंतर-राज्यीय परिषद, केंद्र-राज्य संवाद हेतु एक मंच प्रदान करती है। क्षेत्रीय स्तर पर भी इसी तरह की व्यवस्था बनाई जा सकती है।
  • राष्ट्रीय सांस्कृतिक कोष और साहित्य अकादमी जैसी पहल सांस्कृतिक संरक्षण का समर्थन करती हैं। भाषा संवर्द्धन और सांस्कृतिक उत्सवों सहित क्षेत्र-विशिष्ट कार्यक्रमों का विस्तार किया जा सकता है।

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