

चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद् (PMEAC) के प्रमुख बिबेक देबरॉय ने भारत की आधिकारिक गरीबी रेखा की समीक्षा का समर्थन किया और राज्य स्तर पर असमानता का विश्लेषण करने का सुझाव दिया।
भारत में गरीबी की स्थिति क्या है?
- परिचय:
- गरीबी से तात्पर्य ऐसी परिस्थिति से है, जिसमें लोगों या समुदायों के पास न्यूनतम जीवन स्तर के लिये वित्तीय संसाधन और अन्य आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध नहीं होती हैं।
- सितंबर 2022 में विश्व बैंक ने वर्ष 2017 की कीमतों का उपयोग करते हुए अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा को 2.15 अमेरिकी डॉलर पर निर्धारित किया।
- इसका अर्थ यह है कि प्रतिदिन 2.15 अमेरिकी डॉलर से कम पर जीवन यापन करने वाले किसी भी व्यक्ति को अत्यधिक गरीब माना जाता है।
- भारत में गरीबी का आकलन:
- वी. एम. दांडेकर और एन. रथ (वर्ष 1971) समिति: इसने भारत में गरीबी का पहला व्यवस्थित मूल्यांकन किया।
- यह वर्ष 1960-61 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) के आँकड़ों पर आधारित था।
- उन्होंने तर्क दिया कि गरीबी रेखा को उस व्यय से निकाला जाना चाहिये, जो ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रतिदिन 2250 कैलोरी प्रदान करने के लिये पर्याप्त हो।
- अलघ समिति (वर्ष 1979): इसने पोषण संबंधी आवश्यकताओं के आधार पर ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के लिये गरीबी रेखा का निर्माण किया।
- इसमें वर्ष 1973-74 के मूल्य स्तरों के आधार पर अनुशंसित पोषण संबंधी आवश्यकताएँ और संबंधित उपभोग व्यय ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 2400 कैलोरी (49.1 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह) और शहरी क्षेत्रों के लिये 2100 कैलोरी (56.7 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह) रखा गया।
- लकड़ावाला समिति (वर्ष 1993): इसने निम्नलिखित सुझाव दिये:
- उपभोग व्यय की गणना पहले की तरह कैलोरी खपत के आधार पर की जानी चाहिये।
- गरीबी रेखा का निर्धारण राज्य-विशिष्ट के आधार पर किया जाना चाहिये और इन्हें शहरी क्षेत्रों में औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-IW) और ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-AL) का उपयोग करके अद्यतन किया जाना चाहिये।
- तेंदुलकर समिति (2005): इसकी स्थापना योजना आयोग द्वारा गरीबी का आकलन करने के तरीकों का पुनर्मूल्यांकन करने के लिये की गई थी और इसने दिसंबर 2009 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- रिपोर्ट के अनुसार, 2004-05 में ग्रामीण गरीबी दर 41.8%, शहरी गरीबी दर 25.7% तथा अखिल भारतीय गरीबी दर 37.2% थी।
- रंगराजन समिति (2012): देश की गरीबी माप पद्धति की समीक्षा के लिये भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी. रंगराजन की अध्यक्षता में इसकी बैठक हुई थी।
- इसने गरीबी को शहरी क्षेत्रों में 47 रुपए प्रतिदिन से कम और ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपए प्रतिदिन से कम पर जीवन यापन करने वाले व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया।
- इसने अनुमान लगाया कि तेंदुलकर समिति के अनुमानों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का स्तर 19% अधिक और शहरी क्षेत्रों में 41% अधिक था।
- वी. एम. दांडेकर और एन. रथ (वर्ष 1971) समिति: इसने भारत में गरीबी का पहला व्यवस्थित मूल्यांकन किया।
भारत में नई आधिकारिक गरीबी रेखा की क्या आवश्यकता है?
- अप्रचलित डेटा (Outdated Data): तेंदुलकर समिति (2005) पर आधारित भारत का गरीबी रेखा अनुमान दो दशक पुराना है।
- इस डेटा के आधार पर गरीबी का अनुमान लगाना एक निरर्थक अभ्यास है और इससे गरीबी का बहुत कम आकलन होता है।
- वैश्विक डेटा से असंगत:
- विश्व बैंक की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार महामारी के कारण भारत में वर्ष 2020 में “56 मिलियन गरीब लोगों की वृद्धि” (2.15 अमेरिकी डॉलर) हुई।
- प्यू रिसर्च इंस्टीट्यूट की मार्च 2021 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में गरीबों की संख्या में 75 मिलियन की वृद्धि हुई है और कहा गया है कि इसका मध्यम वर्ग 32 मिलियन कम हो गया है।
- लेकिन भारत ने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि महामारी के कारण या वर्ष 2016 की नोटबंदी और वर्ष 2017 के जीएसटी जैसे महामारी-पूर्व आर्थिक आघात के कारण गरीबी बढ़ी है।
- कम यथार्थवादी डेटा:
- गरीबी की सीमा लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के अनुसार अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होती है, लेकिन वर्तमान गरीबी अनुमान ग्रामीण, शहरी तथा अखिल भारतीय स्तर पर आधारित है।
- अपर्याप्त अनुकूलित माप और असंगत डेटा संग्रह विधियों के कारण यह डेटा कम यथार्थवादी है।
- गरीबी की सीमा लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के अनुसार अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होती है, लेकिन वर्तमान गरीबी अनुमान ग्रामीण, शहरी तथा अखिल भारतीय स्तर पर आधारित है।
- सटीकता संबंधी मुद्दे:
- व्यापक उपभोग और मुद्रास्फीति के आँकड़ों की कमी के कारण सटीक तस्वीर प्राप्त करना असंभव है।
- भारतीय अधिकारी घरेलू आय के आधार पर मुद्रास्फीति के आँकड़े उपलब्ध नहीं कराते हैं।
- बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MDPI) 12 संकेतकों के आधार पर स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर का मूल्यांकन करता है। यह वास्तविक उपभोग मीट्रिक के बजाय सर्वेक्षण-आधारित डेटा पर अधिक निर्भर करता है।
- व्यापक उपभोग और मुद्रास्फीति के आँकड़ों की कमी के कारण सटीक तस्वीर प्राप्त करना असंभव है।
- संस्थागत मुद्दे:
- भारत की सांख्यिकी प्रणाली, जिसकी 1950 के दशक के प्रारंभ में विश्व स्तर पर सराहना हुई थी, की हाल के दिनों में सरकारी प्रणाली के बाहर और भीतर के लोगों द्वारा आलोचना की गई है।
- सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय अनुभवजन्य (Empirical) डेटा प्रदान करने में विफल रहा है तथा संबंधित हितधारकों को अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने में संघर्ष का सामना किया है।
- उदाहरण: उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2017-18 के निष्कर्ष इतने निराशाजनक थे कि उन्हें सरकार द्वारा वापस ले लिया गया।
गरीबी उन्मूलन हेतु सरकारी पहल
- प्रधानमंत्री स्ट्रीट वेंडर आत्मनिर्भर निधि – PM स्वनिधि
- प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन (PM-SYM)
- राष्ट्रीय पोषण मिशन (NNM)
- प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (PMGKY)
- प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना
भारत में असमानता की स्थिति क्या है?
- परिचय:
- असमानता, अर्थव्यवस्था में विद्यमान समाज के विभिन्न समूहों के बीच आय और अवसर का असमान वितरण है।
- आय असमानता से तात्पर्य उस सीमा से है जहाँ तक लोगों की आय समान रूप से वितरित होती है।
- भारत में असमानता का आकलन:
- असमानता मापने की विधियाँ:
- गिनी गुणांक (गिनी सूचकांक या गिनी अनुपात) किसी राष्ट्र अथवा सामाज के समूह में आय, धन अथवा उपभोग असमानता का माप है।
- 0 गिनी सूचकांक पूर्ण समानता को दर्शाता है जबकि 1 सूचकांक पूर्ण असमानता को दर्शाता है।
- भारत में असमानता:
- घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार, उपभोग व्यय गिनी गुणांक का मूल्य वर्ष 2011-12 में ग्रामीण क्षेत्रों के लिये 0.283 तथा शहरी क्षेत्रों के लिये 0.363 था जो वर्ष 2022-23 में घटकर क्रमशः 0.266 और 0.314 हो गया।
- असमानता मापने की विधियाँ:
क्या कम गिनी गुणांक अच्छा है?
- प्रायः विकसित देशों का गिनी गुणांक कम होता है (उदाहरण के लिये, 0.30 से कम), जो अपेक्षाकृत आय या धन की कम असमानता को दर्शाता है।
- भारत जैसे विकासशील देशों का गिनी गुणांक अधिक होता है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्थाएँ विकसित और समृद्ध होती हैं, असमानताएँ थोड़ी बढ़ती जाती हैं।
कुज़नेट वक्र
- कुज़नेट वक्र आर्थिक विकास और आय असमानता के बीच संबंधों का ग्राफिकल निरूपण है।
- यह सुझाव देता है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था निम्न आय कृषि समाज से उच्च आय औद्योगिक और फिर उत्तर-औद्योगिक समाज में विकसित होती है, आय असमानता एक विशेष पैटर्न का अनुसरण करती है।
- कुज़नेट वक्र को प्रतिलोमित U-आकार के वक्र के रूप में दर्शाया जाता है।
- आय असमानता का विशेष पैटर्न:
- निम्न आय चरण (कृषि अर्थव्यवस्था): आर्थिक विकास के प्रारंभिक चरण में, जब समाज मुख्य रूप से कृषि प्रधान होता है तो आय असमानता अपेक्षाकृत कम होती है।
- उच्च आय चरण (औद्योगीकरण): जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित होती है और औद्योगिक चरण में परिवर्तित होती है, इस चरण के दौरान आय असमानता में वृद्धि होती है।
- उच्च आय चरण (औद्योगिकोत्तर): उत्तर-औद्योगिक समाजों में, सेवा उद्योगों, शिक्षा और प्रौद्योगिकी पर अधिक ज़ोर दिया जाता है, जहाँ आय असमानता में कमी होने की संभावना होती है।
आगे की राह:
- संस्थागत सुधार:
- एक संचार रणनीति विकसित करना: MoSPI की गतिविधियों, कार्यप्रणाली तथा डेटा के बारे में हितधारकों के साथ-साथ जनता को नियमित रूप से अपडेट करने के लिये एक व्यापक संचार योजना बनाना।
- प्रासंगिक डेटा: डेटा संग्रहण विधियों की समय-समय पर समीक्षा करना ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे अद्यतन हैं साथ ही वर्तमान आवश्यकताओं के लिये प्रासंगिक भी हैं।
- उभरते मुद्दे: डिजिटल अर्थव्यवस्था मेट्रिक्स, पर्यावरण आँकड़े तथा सामाजिक कल्याण संकेतक जैसे उभरते मुद्दों को कवर करने के लिये डेटा संग्रह का विस्तार करना।
- वैश्विक प्रथाओं के साथ संरेखित करना:
- परामर्शदात्री समितियाँ: सांख्यिकीय तरीकों तथा डेटा प्रसार पर प्रतिक्रिया एवं मार्गदर्शन प्रदान करने के लिये शिक्षा जगत, उद्योग एवं नागरिक समाज के प्रतिनिधियों के साथ परामर्शदात्री समितियाँ गठित करना।
- सार्वजनिक प्रतिक्रिया तंत्र: निरंतर सुधार सुनिश्चित करने के लिये सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के प्रकाशनों के साथ-साथ गतिविधियों पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया के लिये तंत्र को लागू करना।