भारत में न्यायिक नियुक्तियों—जो अनुच्छेद 124(2) और 217(1) के संवैधानिक उपबंधों द्वारा शासित है, पर जारी बहस वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली (collegium system) की सीमाओं को रेखांकित करती है। न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिये अभिकल्पित किये जाने के बावजूद, इस प्रणाली की पारदर्शिता, जवाबदेही की कमी और भाई-भतीजावाद (nepotism) के प्रति संवेदनशीलता ने गंभीर आलोचनाएँ आमंत्रित की हैं। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission- NJAC), जिसका उद्देश्य बहु-हितधारक दृष्टिकोण के माध्यम से इन चिंताओं को दूर करना था, दुर्भाग्य से वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया था।
यू.के., दक्षिण अफ्रीका और फ्राँस जैसे अन्य देशों में न्यायिक नियुक्ति प्रणालियों, जहाँ विभिन्न हितधारकों को संलग्न करने वाले आयोग मौजूद हैं, के परीक्षण से प्रकट होता है कि भारत को भी इसी तरह के मॉडल से लाभ मिल सकता है। सभी संबंधित पक्षों से प्राप्त सुझावों को शामिल करते हुए एक संशोधित NJAC का गठन न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन का निर्माण कर सकता है, जिससे नियुक्ति प्रक्रिया अधिक तेज़ और पारदर्शी बन सकती हैं। यह भारत में विलंबित न्याय की दीर्घकालिक समस्या को दूर करने और न्यायपालिका में आम लोगों के विश्वास की पुनर्बहाली में यह सहायक सिद्ध होगा।
कॉलेजियम प्रणाली समय के साथ किस प्रकार विकसित हुई है?
- प्रथम न्यायाधीश मामला (First Judges Case), 1982: एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (जिसे प्रथम न्यायाधीश मामले के रूप में भी जाना जाता है) मामले में सर्वोच्च न्यायालय की सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने निर्णय दिया कि न्यायिक नियुक्तियों में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के साथ ‘परामर्श’ को ‘सहमति’ नहीं माना जा सकता, जिसका अर्थ यह है कि संविधान के अनुसार CJI की राय प्रधानता नहीं रखती है।
- निर्णय में आगे स्पष्ट किया गया कि उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों के प्रस्ताव अनुच्छेद 217 में उल्लिखित चार संवैधानिक प्राधिकारों में से किसी के द्वारा भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं, न कि केवल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा।
- इस निर्णय ने न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका के पक्ष में संतुलन स्थापित किया और यह अभ्यास अगले 12 वर्षों तक जारी रहा।
- द्वितीय न्यायाधीश मामला (Second Judges Case), 1993: सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ मामले (जिसे द्वितीय न्यायाधीश मामले के रूप में भी जाना जाता है) में सर्वोच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने 7:2 के बहुमत से प्रथम न्यायाधीश मामले के निर्णय को निरस्त कर दिया।
- न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्राथमिक भूमिका होनी चाहिये।
- इसने ‘परामर्श’ का अर्थ ‘सहमति’ माना, जिससे कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना हुई।
- यह प्रणाली न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में व्यक्तिगत राय के बजाय मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सामूहिक राय पर निर्भर करती है।
- न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्राथमिक भूमिका होनी चाहिये।
- तृतीय न्यायाधीश मामला (Third Judges Case), 1998: संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस (Presidential reference) के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने द्वितीय न्यायाधीश मामले में लिये गए निर्णय की पुनः पुष्टि की।
- न्यायालय ने कहा कि न्यायिक नियुक्तियों की अनुशंसा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से की जानी चाहिये।
- इस निर्णय ने कॉलेजियम प्रणाली को दृढ़ता से स्थापित किया, जहाँ न्यायिक नियुक्तियों के मामलों में मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठ न्यायाधीशों की सामूहिक राय सरकार के लिये बाध्यकारी हो गई।
- मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (Memorandum of Procedure- MoP): कॉलेजियम प्रणाली की तरह MoP भी एक न्यायिक नवाचार है, जिसे द्वितीय एवं तृतीय न्यायाधीश मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा तैयार किया गया है।
- इसमें उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये अलग-अलग MoPs हैं।
- वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कॉलेजियम की कार्यवाही में पारदर्शिता बढ़ाने के लिये MoP को संशोधित करने का निर्देश दिया था।
- हालाँकि, इसके कारण कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच MoP के कुछ प्रावधानों को लेकर एक वर्ष तक गतिरोध बना रहा।
- सरकार द्वारा MoP के अनुपूरण के लिये प्रस्ताव भेजे गए हैं, जो वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है।
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission- NJAC): NJAC का प्रस्ताव भारतीय संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग (2002) की अनुशंसाओं पर किया गया था।
- UPA सरकार ने वर्ष 2013 में NJAC विधेयक पेश किया था, लेकिन लोकसभा भंग होने के कारण यह विधेयक व्यपगत हो गया
- NDA सरकार ने वर्ष 2014 में NJAC विधेयक को पुनः प्रस्तुत किया, जिसके परिणामस्वरूप 99वें संविधान संशोधन के अंतर्गत NJAC अधिनियम, 2014 पारित हुआ।
- NJAC में अध्यक्ष के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ सदस्य के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री तथा दो ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल किये जाने थे जिन्हें प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता से गठित त्रिसदस्यीय समिति द्वारा नामित किया जाना था।
- चतुर्थ न्यायाधीश मामला (Fourth Judges Case), 2015: NJAC अधिनियम और 99वें संविधान संशोधन की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने 4:1 के निर्णय से इस अधिनियम और संशोधन दोनों को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया।
- न्यायालय ने NJAC में अपर्याप्त न्यायिक प्रतिनिधित्व के साथ ही कार्यकारी सदस्यों की संलग्नता पर चिंता व्यक्त करते हुए तर्क दिया कि ये कारक न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत और संविधान की ‘मूल संरचना’ का उल्लंघन करते हैं।