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जूट उद्योग में सुधार

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चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारतीय जूट मिल्स एसोसिएशन ने जूट की खेती के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाला, जिसमें इस क्षेत्र के समक्ष आने वाली चुनौतियाँ भी शामिल हैं।

जूट से संबंधित प्रमुख बिंदु क्या हैं?

  • परिचय:  जूट एक प्राकृतिक रेशा (फाइबर) है जो सन, भांग, केनाफ और रेमी जैसे बास्ट फाइबर की श्रेणी अंतर्गत आता है।
    • यह पारंपरिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी भाग में इसका उत्पादन किया जाता है, जो वर्तमान भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के मैदानी इलाकों का हिस्सा है।
    • भारत में पहली जूट मिल वर्ष 1855 में कोलकाता के पास रिषड़ा में स्थापित की गई थी।
  • आदर्श स्थिति: जूट कई प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन इसके उत्पादन के लिये उपजाऊ दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है।
    • 40-90% के बीच सापेक्ष आर्द्रता और 17°C तथा 41°C के बीच तापमान, साथ ही 120 सेमी. से अधिक अच्छी तरह से वितरित वर्षा जूट की खेती एवं विकास के लिये अनुकूल है।
    • प्रजातियाँ: सामान्यतः दो प्रजातियाँ क्रमशः टोसा और सफेद जूट का व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन किया जाता है।
      • एक अन्य बास्ट फाइबर (Bast Fibre) फसल जिसे आमतौर पर मेस्टा के नाम से जाना जाता है, की दो प्रजातियाँ उगाई जाती हैं- हिबिस्कस कैनाबिनस (Hibiscus cannabinus) और हिबिस्कस सब्दारिफा (Hibiscus Sabdariffa)
  • कटाई की तकनीक: बास्ट फाइबर (Bast Fibre) फसल को वानस्पतिक वृद्धि की एक निश्चित अवधि के बाद, आमतौर पर 100 से 150 दिनों के बीच, किसी भी अवस्था में काटा जा सकता है।
    • जूट की फसल की कटाई कली-पूर्व या कली अवस्था (Pre-Bud or Bud Stage) में करने से सर्वोत्तम गुणवत्ता वाला रेशा प्राप्त होता है, हालाँकि पैदावार कम होती है। 
    • ओल्डर क्रॉप्स प्रक्रिया से अधिक उत्पादन होता है, लेकिन रेशा मोटा हो जाता है और तना पर्याप्त रूप से पुनर्विकसित नहीं होता है।
      • रीटिंग प्रक्रिया एक ऐसी विधि है जिसमें पौधे के रेशों को तने से अलग करने के लिये नमी और सूक्ष्मजीवों का उपयोग किया जाता है।
    • इसलिये, यह निर्धारित किया गया है कि अधि उत्पादन और गुणवत्ता के बीच संतुलन के रूप में कटाई फल विकसित होने के प्रारंभिक चरण (Pod Formation Stage) में सबसे अच्छी होती है।
  • गलाने की प्रक्रिया: जूट के तने के बंडलों को पानी में रखा जाता है इसके बाद उन्हें आमतौर पर परतों के क्रम में रखकर एक साथ बाँध दिया जाता है।
    • वे जलकुंभी या किसी अन्य ऐसे खरपतवार से ढके होते हैं जिनसे टैनिन और लौह का उत्सर्जन नहीं होता है।
    • धीमी गति से बहते साफ पानी में रीटिंग सबसे अच्छी होती है। इष्टतम तापमान लगभग 34 डिग्री सेल्सियस है।
    • रीटिंग की प्रक्रिया द्वारा रेशे को लकड़ी से आसानी से बाहर निकल दिया जाता है।
  • अस्थिरता: यह लंबी, मज़बूत घास 2.5 मीटर तक बढ़ती है और इसके प्रत्येक भाग का विभिन्न कार्यों में उपयोग किया जाता हैं।
    • तने की बाहरी परत से रेशे का निर्माण होता है जिसका उपयोग जूट के उत्पाद बनाने में किया जाता है।
    • इसकी पत्तियों का उपयोग कर सूप, स्टू, करी और सब्ज़ी के व्यंजन तैयार किये जाते हैं।
    • इसके लकड़ी युक्त तने का उपयोग कागज़ बनाने के लिये किया जा सकता है।
    • फसल कटाई के बाद ज़मीन में बची हुई जड़ें अगली फसलों हेतु उपयोगी होती हैं।
  • उत्पादन: पश्चिम बंगाल, असम और बिहार देश में प्रमुख जूट उत्पादक राज्य हैं तथा यहाँ मुख्य रूप से सीमांत एवं छोटे किसानों द्वारा जूट की खेती की जाती हैं।
  • रोज़गार: जूट एक श्रम-प्रधान फसल है, जो स्थानीय किसानों को रोज़गार के बड़े अवसर और लाभ प्रदान करती है।
    • कच्चे जूट की खेती और व्यापार लगभग 14 मिलियन लोगों की आजीविका का साधन है।
  •  महत्त्व: स्वर्ण रेशे के रूप में जाना जाने वाला जूट, खेती और उपयोग की दृष्टि से कपास के बाद भारत में दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण नकदी फसल है।
    • भारत विश्व में जूट का सबसे बड़ा उत्पादक है।

 

जूट के उपयोग के क्या लाभ हैं?

  • जैव-निम्नीकरणीय: कई देश प्लास्टिक वस्तुओं, विशेषकर प्लास्टिक बैगों के उपयोग को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।
    • प्लास्टिक बैगों के बजाय जूट के बैग जैव-निम्नीकरणीय (बायोडिग्रेडेबल) और पर्यावरण-अनुकूल प्रमुख विकल्प हैं।
  • मूल्य-वर्द्धित उत्पाद: पारंपरिक उपयोग के साथ-साथ, जूट मूल्य-वर्द्धित उत्पादों जैसे- कागज़, लुगदी, कंपोजिट, वस्त्र, वाल कवरिंग, फर्श, परिधान और अन्य सामग्रियों के उत्पादन में योगदान दे सकता है।
  • किसानों की आय में वृद्धि: एक एकड़ ज़मीन से लगभग नौ क्विंटल फाइबर या रेशा उत्पन्न किया जाता है। जिसका मूल्य 3,500-4,000 रुपए प्रति क्विंटल है।
    • पत्तियाँ और उनके लकड़ी के तने की कीमत लगभग 9,000 रुपए है। अतः प्रति एकड़ पैदावार 35,000 एवं 40,000 रुपए है।
  • स्थायित्त्व: कपास की तुलना में जूट को केवल आधी भूमि और समय की आवश्यकता होती है, सिंचाई में पानी का पाँचवाँ हिस्सा से भी कम उपयोग होता है साथ ही इसमें बहुत कम रसायनों की आवश्यकता होती है।
    • यह काफी हद तक कीट-प्रतिरोधी होते है और इसकी तीव्र वृद्धि खरपतवारों की वृद्धि को कम करती है।
  • कार्बन तटस्थ फसल: चूँकि जूट पौधों से प्राप्त होता है जो एक बायोमास है, इसलिये यह स्वाभाविक रूप से कार्बन-तटस्थ होता है।
  • कार्बन पृथक्करण: जूट प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर 1.5 टन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर सकता है।
    • यह जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद कर सकती है।
    • जूट एक तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है, जो कम समय में बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर सकता है।

जूट की खेती में क्या चुनौतियाँ शामिल हैं?

  • प्राकृतिक जल की कम उपलब्धता: ऐतिहासिक रूप से प्रत्येक वर्ष नदी में बाढ़ आने से खेत जलमग्न हो जाते थे, जिससे जूट के बंडल सीधे खेतों में डूब जाते थे, जिससे रीटिंग प्रक्रिया सरल हो जाती है।
    • कम बाढ़ के कारण, मौजूदा प्रक्रियाओं में रेटिंग प्रक्रिया के लिये जूट को मानव निर्मित तालाबों में ले जाया जाता है।
  • अप्राप्त क्षमता: जूट उद्योग की कार्य क्षमता लगभग 55% की है, जिससे 50,000 से अधिक श्रमिक प्रभावित हो रहे हैं। वर्ष 2024-25 तक जूट बैग की मांग घटकर 30 लाख बेल (Bales) रह जाने का अनुमान है।
  • पुरानी तकनीक: जूट आयुक्त कार्यालय के अनुसार, भारत में कई जूट मिलें 30 साल से ज़्यादा पुरानी मशीनरी का प्रयोग करती हैं। इससे परिचालन दक्षता कम हो जाती है और उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
  • उत्पाद विविधीकरण का अभाव: जूट एक बहुउद्देशीय रेशा है जिसका उपयोग दीवार कवरिंग, जियोटेक्सटाइल, इन्सुलेशन (ग्लास वूल के स्थान पर) और अन्य उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है।
    • इन उच्च विकास वाले क्षेत्रों में उत्पादों की कमी का अर्थ है कि जूट का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा अभी भी अप्रयुक्त है, जिससे समग्र उद्योग विकास और स्थिरता प्रभावित हो रही है।
  • जूट मिलों का संकेंद्रण: देश में लगभग 70 जूट मिलें हैं, जिनमें से लगभग 60 पश्चिम बंगाल में हुगली नदी के दोनों किनारों पर स्थित हैं।
    • इसके परिणामस्वरूप कच्चे माल और तैयार उत्पादों के वितरण में बाधाएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
    • इस क्षेत्र के बाहर, विशेषकर पूर्वोत्तर भारत में जूट की खेती को संसाधनों और बाज़ारों तक पहुँच हेतु चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • अपर्याप्त समर्थन: जूट पैकिंग सामग्री (वस्तु पैकिंग अनिवार्य प्रयोग) अधिनियम, 1987 के बावजूद जूट क्षेत्र को नीति कार्यान्वयन और समर्थन में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

जूट उद्योग से संबंधित सरकारी योजनाएँ क्या हैं?

आगे की राह: 

  • गोल्डन फाइबर क्रांति: विभिन्न हितधारकों द्वारा लंबे समय से ‘गोल्डन फाइबर क्रांति की मांग की जा रही है।
    • इसका उद्देश्य जूट की खेती को बढ़ाना, जूट उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार करना, निर्यात को बढ़ावा देना तथा जूट किसानों और श्रमिकों की आजीविका में सुधार लाना है।
  • बाढ़ प्रबंधन: जल प्रबंधन प्रथाओं का समर्थन करना, जो प्राकृतिक बाढ़ प्रतिरूप को बहाल करने या नियंत्रित सिंचाई के माध्यम से उनका अनुकरण करने में मदद कर सकती हैं। इससे रीटिंग प्रक्रिया आसान हो जाएगी तथा कृत्रिम तरीकों पर निर्भरता कम हो जाएगी।
  • मशीनरी का उन्नयन: जूट प्रसंस्करण के लिये नई प्रौद्योगिकियों और मशीनरी में निवेश को प्रोत्साहित करना। सरकार तकनीकी उन्नयन के लिये मिलों को सब्सिडी या कम ब्याज दर पर ऋण दे सकती है।
  • उत्पाद नवाचार को बढ़ावा देना: जूट के लिये नए अनुप्रयोगों, जैसे कि जियोटेक्सटाइल्स और सक्रिय कार्बन का पता लगाने के लिये अनुसंधान तथा विकास का समर्थन करना। नए उत्पाद लाइनों को विकसित करने के लिये उद्योग विशेषज्ञों के साथ जुड़ना।
    • नवाचार और बाज़ार विस्तार को प्रोत्साहित करने के लिये कंपनियों को कर लाभ, अनुदान या सब्सिडी प्रदान की जा सकती है।
  • नीतियों को लागू करना और उनका विस्तार करना: जूट पैकिंग सामग्री (वस्तु पैकिंग अनिवार्य प्रयोग) अधिनियम, 1987 का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना। वर्तमान उद्योग की ज़रूरतों और बाज़ार की स्थितियों को संबोधित करने के लिये अधिनियम की समीक्षा करना तथा उसे अद्यतन करना।
  • नीति और उद्योग समीक्षा: बदलती बाज़ार स्थितियों और तकनीकी प्रगति को प्रतिबिंबित करने के लिये नीतियों तथा उद्योग प्रथाओं की नियमित समीक्षा एवं समायोजन करना।

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