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कर्नाटक उच्च न्यायालय ने POCSO मामले को किया रद्द

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चर्चा में क्यों? 

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक नाबालिग से बलात्कार के आरोपी 23 वर्षीय व्यक्ति, जिसने पीड़िता से बाद में विवाह कर लिया, के खिलाफ लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 के तहत चल रही कार्यवाही को रद्द कर दिया है।

  • इस निर्णय में एक चेतावनी शामिल है, जिसके तहत यदि व्यक्ति भविष्य में अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़ देता है तो आपराधिक कार्यवाही को पुनः शुरू किया जा सकता है। इस शर्त का उद्देश्य माँ और बच्चे के कल्याण एवं सुरक्षा को सुनिश्चित करना है।

न्यायालय ने मामले को रद्द करने का औचित्य कैसे सिद्ध किया?

  • आरोपी के वकील: तर्क दिया कि आरोपी और पीड़िता एक-दूसरे से प्रेम करते थे तथा माता-पिता द्वारा विवाह के लिये सहमति जताए जाने के बाद अपराध दर्ज किया गया था। इस बात पर प्रकाश डाला कि दोनों परिवार विवाह का समर्थन करने के लिये आगे आए थे।
  • राज्य के वकील: तर्क दिया कि अपराध की जघन्य प्रकृति के कारण मामले को रद्द नहीं किया जाना चाहिये, जिसके लिये दस वर्ष के कारावास की सज़ा हो सकती है। मामले को सुनवाई के लिये ले जाने के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
  • न्यायालय का निर्णय:
    • पीड़िता और बच्चे की सुरक्षा: न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मामले को सुलझाए बिना याचिकाकर्त्ता को रिहा करने से माँ और बच्चे असुरक्षित हो जाएंगे, उन्हें सामाजिक बदनामी व संभावित खतरे का सामना करना पड़ेगा।
    • पीड़िता की संभावित शत्रुता: न्यायालय ने कहा कि पीड़िता के अपने बयान से पलट जाने की संभावना है, जिससे याचिकाकर्त्ता को दोषी ठहराए जाने की संभावना बहुत कम है।
    • न्यायमूर्ति ने ज़मीनी हकीकत पर विचार करने के महत्त्व पर प्रकाश डाला, जिसमें कहा गया कि आपराधिक मुकदमे को लंबा खींचने से अनावश्यक पीड़ा होगी और किसी भी अंतरिम रिहाई की संभावना कम हो जाएगी।

लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 क्या है?

  • परिचय: लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 बच्चों को यौन शोषण से संरक्षण हेतु बनाया गया था, जो वर्ष 1989 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा बाल अधिकारों पर कन्वेंशन को अपनाने के बावजूद भारत में एक महत्त्वपूर्ण विधायी अंतर को कम करता है।
    • इस अधिनियम के तहत गंभीर दंड का प्रावधान है, जिसमें 20 वर्ष तक की कैद और गंभीर यौन उत्पीड़न के लिये मृत्युदंड तक शामिल है।
  • आवश्यकता: POCSO अधिनियम, 2012 से पूर्व, भारत का एकमात्र बाल संरक्षण कानून गोवा बाल अधिनियम, 2003 था। भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराएँ 375, 354 और 377 अपर्याप्त थीं क्योंकि उनमें बालकों के प्रति हुए ‘अप्राकृतिक अपराध’ की स्पष्ट परिभाषाएँ प्रदान नहीं की गई थीं।
    • बाल यौन शोषण के बढ़ते मामलों को देखते हुए एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता हुई, जिसके परिणामस्वरूप महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा POCSO अधिनियम को लागू किया गया।
  • सामान्य सिद्धांत:
    • सम्मान पूर्वक व्यवहार किये जाने का अधिकार: बच्चों के साथ करुणा और सम्मान पूर्वक  व्यवहार करने के महत्त्व को दर्शाता है।
    • जीवन और अस्तित्व का अधिकार: यह सुनिश्चित करना कि बच्चों को अनुच्छेद 21 के अनुसार सुरक्षा मिले और सुरक्षित वातावरण में उनका पालन पोषण हो ।
    • भेदभाव के विरुद्ध अधिकार: लिंग, धर्म या संस्कृति के आधार पर भेदभाव किये बिना निष्पक्ष और न्यायपूर्ण प्रक्रियाएँ।
    • निवारक उपायों का अधिकार: बच्चों को दुर्व्यवहार को पहचानने और रोकने के लिये प्रशिक्षित करना।
    • सूचित किये जाने का अधिकार: बच्चे को कानूनी कार्यवाही के बारे में सूचित रखना।
    • गोपनीयता का अधिकार: बच्चे की गोपनीयता की रक्षा के लिये कार्यवाही की गोपनीयता बनाए रखना।
  • अपराधों की सुनवाई: विशेष न्यायालय अभियुक्त को सुनवाई के लिये भेजे बिना ही संज्ञान ले सकती हैं। बच्चे को अभियुक्त के संपर्क में आने से रोकने के प्रयास किये जाने चाहिये।
    • साक्ष्य 30 दिनों के भीतर दर्ज किये जाने चाहिये और संज्ञान लेने के एक वर्ष के भीतर सुनवाई पूरी होनी चाहिये।
    • चिकित्सा जाँच के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया है, लेकिन ध्यान दिया गया है कि शारीरिक चोटें हमेशा मौजूद नहीं हो सकती हैं।
    • धारा 42A यह सुनिश्चित करती है कि POCSO प्रावधान किसी भी परस्पर विरोधी कानून को दरकिनार कर दें।
  •  POCSO अधिनियम की कमियाँ:
    • अंतिम बार देखे जाने के सिद्धांत का अनुप्रयोग: अंजन कुमार सरमा बनाम असम राज्य, 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पुष्टि करने वाले साक्ष्य के बिना यह सिद्धांत कमज़ोर है, जिससे गलत दोषसिद्धि का जोखिम है।
      • यह सिद्धांत बताता है कि यदि कोई व्यक्ति अपराध से पहले पीड़ित के साथ अंतिम बार देखा गया है और कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं दे सकता है, तो यह प्रबल अनुमान है कि वे अपराध के लिये ज़िम्मेदार हैं।
    • सहमति से शारीरिक क्रियाकलाप: यह अधिनियम नाबालिग के साथ सहमति से शारीरिक संबंध बनाने वाले गैर-नाबालिग साथी पर मुकदमा चलाता है, क्योंकि नाबालिगों की सहमति अप्रासंगिक मानी जाती है।
    • बच्चों द्वारा झूठी शिकायतें: धारा 22 बच्चों को झूठी शिकायतों के लिये सज़ा से छूट देती है, जिससे संभावित दुरुपयोग होता है।
    • टू-फिंगर टेस्ट: वर्ष 2012 में प्रतिबंधित होने के बावजूद, यह परीक्षण अभी भी किया जाता है, जो पीड़ित की गोपनीयता और गरिमा का उल्लंघन करता है, जैसा कि लिल्लू @ राजेश बनाम हरियाणा राज्य, 2013 में उल्लेख किया गया है।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2022 में पुष्टि की कि बलात्कार या यौन उत्पीड़न से बचे लोगों पर आक्रामक ‘टू-फिंगर’ या ‘थ्री-फिंगर’ योनि परीक्षण करना कदाचार माना जाता है। इन परीक्षणों को प्रतिगामी माना जाता है और यह निर्धारित करने के लिये उपयोग किया जाता है कि क्या पीड़ित यौन संबंध के लिये “आदी” थी।
    • अप्रस्तुत जाँच तंत्र: बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, होइंगोली एवं अन्य बनाम भवत एवं अन्य, 2017 के मामले में, दोषपूर्ण जाँच प्रक्रियाओं को उजागर करते हुए, बिना सील किये गए साक्ष्य के कारण अभियुक्तों को बरी कर दिया।
  • अपराधों के लिये सज़ा: 

 

POCSO अधिनियम, 2012 पर महत्त्वपूर्ण न्यायिक घोषणाएँ

  • बिजॉय बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2017: इस मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चों की गरिमा की रक्षा के लिये निर्देश जारी किये।
    • पुलिस को POCSO अधिनियम की धारा 19 के तहत एफआईआर दर्ज करनी चाहिये और पीड़ितों तथा उनके माता-पिता को कानूनी सहायता अधिकारों के बारे में सूचित करना चाहिये।
    • पोक्सो अधिनियम की धारा 27 के अनुसार प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) दर्ज होने के बाद बच्चे की तत्काल चिकित्सा जाँच कराई जाएगी।
    • किशोर न्याय अधिनियम के तहत ‘देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों’ के रूप में पहचाने गए पीड़ितों को बाल कल्याण समिति (Child Welfare Committee- CWC) को भेजा जाना चाहिये। पीड़ितों की पहचान गोपनीय रखी जानी चाहिये।
      • विशेष न्यायालय द्वारा अंतरिम स्तर पर मुआवज़ा प्रदान किया जा सकता है, जो कि दोषसिद्धि के बाद दोषी को दिये जाने वाले मुआवज़े से स्वतंत्र होगा, जिसका उद्देश्य पीड़ित बच्चे को राहत और पुनर्वास प्रदान करना है।
    • विष्णु कुमार बनाम छत्तीसगढ़ राज्य, 2017: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने POCSO अधिनियम की धारा 36 के अनुपालन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। दिशा-निर्देशों में शामिल हैं:
      • यह सुनिश्चित करना कि कार्यवाही के दौरान बाल गवाहों को सहजता महसूस हो, संभवतः बंद कमरे में सत्र के माध्यम से तथा उनसे व्यक्तिगत रूप से बातचीत करके।
      • साक्ष्य नियमों में लचीलापन प्रक्रियाओं के सख्त पालन पर सत्य को प्राथमिकता देता है। बच्चों के बयानों को रिकॉर्ड करते समय आराम और सटीकता सुनिश्चित करने के लिये ब्रेक की अनुमति होनी चाहिये।
    • दिनेश कुमार मौर्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 2016: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चिकित्सा साक्ष्य के अभाव में दोषसिद्धि को रद्द कर दिया। महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ निम्नलिखित थीं:
      • यौन उत्पीड़न को साबित करने के लिये चोटें आवश्यक नहीं हैं, पीड़ित की गवाही महत्त्वपूर्ण है।
      • न्यायालयों को नाबालिगों पर बाहरी प्रभावों के कारण झूठे आरोपों की संभावना पर विचार करना चाहिये।
    • सुंदरलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 2017: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने नाबालिग की गर्भावस्था को समाप्त करने की याचिका पर सुनवाई की। मुख्य निर्देश:
      • नाबालिग के लिये माता-पिता की सहमति ही पर्याप्त है, नाबालिग की सहमति की आवश्यकता नहीं है। गर्भपात का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 से प्राप्त होता है।
        • चिकित्सकों की एक समिति को गर्भपात अनुरोध का मूल्यांकन करना चाहिये। गर्भपात के बाद, भ्रूण के डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (Deoxyribonucleic Acid- DNA) परीक्षण को कानूनी प्रक्रियाओं के अनुसार संरक्षित किया जाना चाहिये।

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